Uttarakhand Tourism in Haridwar in Eighteenth Century
( अठारहवीं सदी में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )
उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -55
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
हरिद्वार (गंगाद्वार , कनखल, मायापुरी ) का उल्लेख महाभारत , केदारखंड , कालिदास साहित्य , हुयेन सांग , तैमूर लंग संस्मरण , गुरु नानक संस्मरण , आईने अकबरी , थॉमस कोरियट ,एडवार्ड ऐटकिंसन आदि में मिलता है। हरिद्वार के पास सहारनपुर में सिंधु सभ्यता के भी अवशेष मिले हैं।
तैमूर लंग ने बैशाखी के समय हरिद्वार में कत्ले आम किया था।
अट्ठारहवीं सदी में कुम्भ मेला
यह एक आश्चर्य ही है कि हिन्दू गाते फिरते रहते हैं कि कुम्भ मेला सहस्त्रों वर्षों से चल रहा है किंतु सबसे पहले कुम्भ मेले का उल्लेख दास्तान -ए -मजहब (1655 ) में संकेत से ही मिलता है कि जब 1640 में दो अखाड़ों के मध्य युद्ध हुआ था।
खुलसत -अल -तवारीख़ (1695 ) में बैसाखी के दिन गंगा स्नान आदि क उल्लेख है और लिखा है प्रत्येक 12 वे वर्ष में जब सूर्य कुम्भ राशि में प्रवेश करता है तो मेला लगता है। किन्तु ग्रंथ में कुम्भ नाम नहीं मिलता है।
कुम्भ मेले का सर्वप्रथम उल्लेख ‘चहर गुलशन (17 59 ) में ही मिलता है जिसमे उल्लेख है कि जब गुरु कुम्भ में प्रवेश करता है तो लाखों लोग , फकीर , सन्यासी हरदीवार में जमा होते हैं , नहाते हैं , दान , पिंड दान करते हैं। स्थानीय सन्यासी प्रयाग से आये फकीरों पर आक्रमण करते हैं।
1750 तक कुम्भ मेला सबसे बड़ा व्यवसायी मेला बन चु था।
कुम्भ मेले में 1760 का रक्तपात
धीरेन भगत व अन्य लेखक जैसे माइकल कुक (2014 ) की पुस्तक ‘ऐनसियंट रिलिजन ऐंड मॉडर्न पॉलिटिक्स (पृ. 236 ) , ईस्ट इण्डिया कम्पनी के रजिस्टरों से पता चलता है कि 1760 के कुम्भ मेले में शैव्य गुसाईं व वैष्णव बैरागियों मध्य भयंकर युद्ध हुआ था जिसमे 18000 बैरागी मारे गए थे। 1760 के पश्चात जब तक ब्रिटिश ने मेले का प्रबंध अपने हाथ में नहीं लिया था तब तक वैष्णव बैरागी कुम्भ मेले में भाग नहीं ले सके थे।
1783 के कुम्भ मेले में हैजा प्रकोप
1783 का हरिद्वार कुम्भ मेला हैजा प्रकोप के लिए जाना जाता है। कुम्भ मेले हरिद्वार में लगभग 10 -20 लाख भक्तों ने भाग लिया था। शीघ्र ही हरिद्वार में हैजा फ़ैल गया। जिसमे पहले आठ दिनों में ही 20 सहस्त्र लोगों की जाने गयीं। ज्वालापुर में हैजा नहीं फैला।
जो लोग मेले के बाद बद्रीनाथ यात्रा पर गए वे अपने साथ हैजा गढ़वाल ले गए और वहां भी जाने गयीं।
1796 में सिख उदासियों द्वारा शैव्य गुसाइयों की निर्मम हत्त्या
तब कुम्भ मेले का प्रबंध शैव्य गुसाईं संभालते थे , सिखों के अड़ियल पन से शैव्य व सिखों में ठन गयी। सिखों के साथ 12 -14 सहस्त्र खालसा सैनिक भी थे। कुम्भ के अंतिम दिन 10 अप्रैल 1795 के सुबह 8 बजे से खालसाओं ने गुसाइयों पर हमला बोल दिया कर उसमे लगभग 500 गुसाईं मारे गए। सिखों ने 3 बजे हरिद्वार छोड़ दिया।
गुसाइयों द्वारा यात्रियों से कर उगाई
गुसाईं यात्रियों से कर उगाते थे। गुसाईं हाथ में तलवार व ढाल लेर मेले का प्रबंध करते थे। गुसाईं महंत लोगों की शिकायत सुनते थे और शिकायत समाधान करते थे।
कुम्भ मेले में चिकित्सा
ब्रिटिश शासन से पहले मेलों में चिकित्सा सुविधा क्या थी पर कोई ऐतिहासिक रिकॉर्ड नहीं मिलता है। ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा विभिन्न व्याधियों व चिकित्सा व्यवस्था रपटों और स्वामी विवेकानंद के 1880 -92 के मध्य हरिद्वार आने और उनके बीमार पड़ने के वृत्तांत से अनुमान लगाया जा सकता है कि सौ वर्ष पहले हरिद्वार में चिकित्सा व्यवस्था कैसे रही होगी। बाद में रामकृष्ण संस्थान ने सेवाश्रम चिकित्सालय खोला और 1902 तक अठारह महीनों में 1054 रोगियों ने हरिद्वार व ऋषिकेश में स्वास्थ्य लाभ लिया।
कई नागा साधू , गुसाईं , बैरागी व महंत आयुर्वेद विज्ञ होते थे और चिकित्सा में योगदान देते थे।
अनुमान ही लगाना पड़ेगा कि चूंकि मेले में हिन्दू ही अधिक भाग लेते थे तो आयुर्वेद चिकित्सक ही मेले में अधिक रहे होंगे।
धार्मिक मेलों में विद्वान् व विशेषज्ञ भी ज्ञान आदान प्रदान हेतु आते थे तो आयुर्वेद चिकित्स्क अवश्य ही अपना अपना चिकित्सा ज्ञान आदान प्रदान करते रहे होंगे।
सत्रहवीं सदी से ही हरिद्वार में धार्मिक मेले व्यवसायक भी होने लगे थे तो जड़ी -बूटी -भष्म आदि की विक्री भी हरिद्वार में होने लगी होगी। वैसे भी मंडी होने के कारण सामान्य समय में गढ़वाल की जड़ी बूटी व अन्य क्षेत्रों की औषधीय वनस्पति व औषधि हरिद्वार में सैकड़ों वर्षों से व्यापारिक स्तर पर बिकती ही रहती थी।
यूनानी चिकित्स्क भी मुफ्त में या व्यवसायिक तौर पर हरिद्वार कुम्भ मेले या अन्य धार्मिक मेलों में चिकित्सा करते ही रहे होंगे। रुड़की तहसील में मुस्लिम गाँवों की उपस्थिति से हड्डी बिठाने वाले , मालिस से व्याधि दूर करने वाले , कई अन्य व्याधियों को दूर करने वाले घरेलू , यूनानी चिकित्स्क अवश्य मेले में आते रहे होंगे।
राजस्थान या मुल्तान क्षेत्र से आने वाले जड़ी बूटी विक्रेता
आज भी हरिद्वार में पारम्परिक आरोग्य चिकित्सा से जुड़े लोग जड़ी बूटी सड़क पर बेचते हैं (आज ये हीलर्स अधिकतर सेक्स बीमारियों हेतु जड़ी बूटी या औषधि बेचते हैं (कुमार अविनाश भाटी मुकेश कुमार , 2014 , ट्रेडिशनल ड्रग्स सोल्ड बाई हर्बल हीलर्स इन हरिद्वार , इण्डिया , इंडियन नॉलेज ऑफ ट्रेडिशनल नॉलेज , vol 13 (3 ) , पृ 600 -05 ) ) । ये हीलर्स /आरोग्य साधक अधिकतर राजस्थान घराने के होते हैं। सत्रहवीं -अठारवीं सदी में भी आरोग्यसाधक जड़ी बूटी मेलों में बेचते होंगे। मुल्तान क्षेत्र के आरोग्यसाधक भी हरिद्वार में चिकित्सा औषधि बेचते रहे होंगे।
राजाओं , जमींदारों द्वारा यात्रा याने चिकत्स्कों का प्रबंध
राजा , महाराजे व जमींदार , धनिक भी हरिद्वार यात्रा पर आते थे। अवश्य ही वे धनी , सम्पन लोग या तो अपने साथ चिकित्स्क लाते होंगे या हरिद्वार के पारम्परिक पंडों की सहायता से चिकित्सा प्रबंध करवाते होंगे।
गुरु नानक की यात्रा पश्चात सिख भी जत्थों में आते थे तो अवश्य ही साथ में वैद्य भी आते ही होंगे।
सदाव्रत या धर्मार्थ चिकित्सालय भी हरिद्वार में रहे होंगे जिनका प्रबंध आश्रमों व मंदिरों द्वारा होता होगा। गढ़वाल में सदियों से सदाव्रत या मंदिर व्यवस्थापक न्यूनाधिक रूप से चिकित्सा प्रबंध भी करते थे। गढ़वाल में सदाव्रत हेतु मंदिरों को भूमि मिली होती थी।