गढ़पतियों से पंवार वंश स्थापना (1250 -1500 ) तक गढ़वाल में अस्तित्व -रक्षा जनित पर्यटन
Survival Tourism from 1250 to 1500 in Garhwal
उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -40
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
उत्तराखंड पर क्राचल्ल के उत्तराधिकारी का शासन संभवतया 1250 तक रहा। उसके बाद गढ़वाल देहरादून -हरिद्वार समेत में 100 से अधिक गढ़पतियों का शासन रहा। कुछ ब्राह्मणों व राजपूतों ने ब्रिटिश काल या उससे पहले अपनी अपनी जाति श्रेष्ठता हेतु जनश्रुतिया प्रचारित कीं जिनमे कनकपाल नाम के राजा की जनश्रुति प्रसारित की गयीं। ‘कनकपाल था व उसके बंशज थे ‘ के समर्थन में कोई तत्कालीन ऐतिहासिक तथ्य कभी भी उपलब्ध नहीं था। देवलगढ़ , चांदपुर गढ़ी विध्वंस आदि के जनश्रुति भी ब्राह्मणों व राजपूतों ने अपनी जाति श्रेष्टता हेतु जोड़ दी। जब कि विध्वंस कुमाऊं राजा ने की थी।
गढ़वाल में बावन गढ़ थे भी पूरी तरह मान्य नहीं है रतूड़ी ने चौसठ गढ़पति या गढ़ों का नाम दिया किन्तु ये गढ़ सौ से अधिक थे। पंवार अथवा पाल वंश कब स्थापित हुआ पर भी इतिहासकारों के मध्य कोई स्थिर राय नहीं बन सकी है। किसी जगतिपाल का नाम भी देवप्रयाग शिलालेख में बहुत बाद सन 1455 में अंकित हुआ।
सैकड़ा के करीब गढ़पतियों के राज का अर्थ है बहुराजकता और अनियमितता।
इसी काल में मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण भी हुए व भारत में उथल पुथल रही। ढांगू , उदयपुर अजमेर , भाभर , देहरादून व हरिद्वार को मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण या लूट झेलनी पड़ी।
इसी समय तैमूर लंग का हरिद्वार पर आक्रमण हुआ (1398 ) व उसने चंडीघाट से गंगा किनारे किनारे उदयपुर -ढांगू में प्रवेश किया जहां बंदर चट्टी में ढांगू गढ़ के सैनिकों राजा व जनता ने ढुंग की बर्षा से उसे रोका और फिर रत्नसेन की सेना ने उसे रोका व उसे भारत छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा।
इस काल में पर्यटन पर विशेष साहित्य या प्रमाण नहीं मिलते किन्तु तार्किक दृष्टि से पर्यटन निम्न प्रकार से रहा होगा –
शरणार्थी स्थल
मैदानी हिस्सों में राजनैतिक अस्थिरता , लूटमार , अशांति , हत्त्याओं, आतंकवादी घटनाओं , व मंदिरों के विध्वंस के दौर ने हिन्दुओं के लिए पलायन ही विकल्प बच गया था। छोटे मोटे जागीर पति अपने सैनिकों , नागरिकों के साथ या नागरिक अकेले या समूह में मध्य हिमालय में शरण ली। कुछ जागीरदारों (राजाओं ) ने शायद मध्य हिमालय या शिवालिक अपनी दो तीन गाँवों से गढ़ भी स्थापित किया होगा। इन विस्थापित शरणार्थियों के कारण इनके मूल स्थल तक गढ़वाल , हिमाचल , कर्माचल के समाचार भी अवश्य पहुंचे ही होंगे। दूर बंगाल, गुजरात , महाराष्ट्र व दक्षिण स्थानों तक सुरक्षित मध्य हिमालय की छवि तो बनी ही होगी। यही कारण रहा होगा कि गढ़वाल पर्यटन में कमी अवश्य आयी होगी किन्तु धार्मिक पर्यटन समाप्त नहीं हुआ।
सर्वाइवल टूरिज्म
यह काल गढ़वाल में सर्वाइवल टूरिज्म या अस्तित्व – रक्षा पर्यटन काल माना जाएगा।
गंगा महत्व
तिमूर के समय गंगा जी का महत्व था और हरिद्वार (मायापुर ) तीर्थ था। हरिद्वार में प्राचीन मंदिरों का न मिलना द्योतक है कि मंदिर तोड़े गए। दक्षिण गढ़वाल में अधिकतर मंदिरों में भैंसपालक (गुज्जर) द्वारा मूर्ति खंडन की कथाएं , मुस्लिमों द्वारा मनुष्य के खून से रामतेल निकालने वाली लोककथाएं संकेत देती हैं कि हरिद्वार में मंदिर तोड़े जाते रहे हैं जिससे किसी प्राचीन मंदिर का जिक्र इतिहास कार तर्क अनुसार नहीं करते हैं।
तीर्थाटन
देवप्रयाग के 1455 में अंकित शिलालेख साक्षी हैं कि इस काल में देव प्रयाग ,बद्रीनाथ , गोपेश्वर , जोशीमठ , केदरारनाथ में पर्यटक आते थे। कुछ गंगोत्री -यमनोत्री भी जाते थे। दंडीस्वामियों के कारण बद्रीकाश्म -केदाराश्रम में व्यवस्था रही।
सिद्धों का पर्यटन
ब्रजयानी बौद्ध धर्मी साधकों को सिद्ध कहा जाता था
हरिद्वार , बिजनौर में बौद्ध धर्मी मठ मंदिर विध्वंस से सिद्ध संत व संत परिवार भाभर के जंगलों व गाँवों में चले गए और धीरे धीरे पहाड़ों की ओर चले गए। सिद्धों के चमत्कार प्रयोग से जनता में इनका प्रभाव पड़ा। सिद्धों ने स्थानीय भाषाओं में अपने संभषण रचे। कतिपय रख्वाळी सिद्ध संत रचित हैं।
नाथ संतों का पर्यटन
नाथ संत भी गाँवों में पर्यटन करते थे। मंत्र -तंत्र चिकित्सा का बोलबाला अधिक रहा हो गया होगा। ।
संस्कृत भाषा समाप्ति के कगार पर
गढ़वाल की बहुत सी ब्राह्मण जातियों की जनश्रुतियों में उनका आगमन नवीं सदी से बारहवीं , तीरहवीं सदी का बतलाया गया है। किन्तु इस काल याने क्राचल्ल काल से 1450 तक कोई संस्कृत ताम्रपत्र , शिलालेख चमोली -रुद्रयाग जनपदों में नहीं मिले हैं। इससे स्पष्ट होता है कि जन शासकों का जिक्र इन ब्राह्मण की जनश्रुतियों में मिलता है वे लघु जमींदार या गढ़पति थे। 1250 से 1450 सन तक संस्कृत वास्तव में लुप्त होने के कगार में पंहुच गयी होगी।
संस्कृत लुप्तीकरण से स्पष्ट है कि आयुर्वेद चिकित्सा में रुकावट व नए अनुसंधान समाप्ति के अतिरिक्त शिष्य परम्परा पर कुठाराघात से आयुर्वेद में रुकावट हुयी ।
नव आगुन्तकों से नई चिकत्सा पद्धति आगमन
शरणार्थियों के आगमन से समाज में कई तरह के उथल पुथल तो हुए ही होंगे किन्तु साथ साथ गढ़वाल को कुछ नई चिकत्सा पद्धति भी मिली होगी।