Uttarakhand Tourism in Pal/Panwar/ Shah Dynasty
( पंवार काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )
उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -41
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
पाल या पंवार वंश की स्थापना कब कैसी हुयी पर साक्ष्य न मिलने से इतिहासकारों मध्य मतैक्य है। अधिकतर चर्चा जनश्रुतियों पर ही होती है। चांदपुर गढ़ कब निर्मित हुआ पर भी इतिहासकारों मध्य मतैक्य ही है।
पाल , पंवार या शाह वंश का पहला साक्ष्य देवप्रयाग अभिलेख (1455 ) में मिलता जिसमे जगतीपाल व जगतपाल रजवार का नाम अंकित है और गढ़वाली में है जिससे इतिहासकार मानते हैं कि जगतपाल देवप्रयाग के निकट का रजवार /शासक था।
पर्यटन इतिहास दृष्टि से माना जा सकता है कि अजयपाल से पहले जगतिपाल , जीतपाल , आनंदपाल राजा हुए। गढ़वाल का इतिहास लेखक रतूड़ी ने अजयपाल का शासन (1500 -1548 ) के बाद सहजपाल ( 1548 -1581 ) बलभद्र शाह (1581 -1591 ई ) माना है।
कबीरपंथी प्रचारकों का पर्यटन
अठारहवीं सदी में रचित ‘गुरु -महिमा ‘ ग्रंथ अनुसार कबीर ने गढ़ देस की यात्रा की थी किन्तु अन्य साक्ष्य अनुपलब्ध हैं। यह हो सकता है कि कबीर जीवन काल में या मृत्यु पश्चात कबीर शिष्य गढ़वाल आये हों और उन्होंने कबीर पंथ का पचार प्रसार किया हो। निरंकार जागरों में कबीर को निरंकार देव का सर्वश्रेष्ठ भक्त माना गया है।
पैलो भगत होलु कबीर तब होलु कमाल
तब को भगत होलु ? तब होलु रैदास चमार।
इससे सूत्र मिलता है कि शिल्पकारों मध्य कबीर पंथियों ने कुछ न कुछ जागरण अवश्य किया था।
नानक का हरिद्वार पर्यटन
सिक्ख प्रथम गुरु नानक अपने शिष्य मर्दाना के साथ हरिद्वार आये थे। उन्होंने हरिद्वार में अकाट्य संभाषण किये जिनसे लोग प्रभावित भी हुए। (चतुर्वेदी ,उत्तरी भारत की संत परम्परा ) .
देव प्रयागी पंडों की बसाहत
देवप्रयाग अभिलेख से ज्ञात होता कि रघुनाथ मंदिर में भट्ट पंडों की परम्परा प्रारम्भ हो चुकी थी। याने दक्षिण से आजीविका पलायन पर्यटन चल ही रहा था।
सजवाण जातिका भी राजनीति में महत्व साबित होता है।
आजीविका पपर्यटन
इसी तरह अन्य जातियों द्वारा मैदानी भाग छोड़ पहाड़ों में आजीविका या शरणार्थी अस्तित्व पर्यटन चल ही रहा था . मैदान में गढवाली राजनायिक राजनैतिक भ्रमण करते थे तो छवि निर्माण होती ही थी .
तीर्थ यात्री
देवप्रयाग अभिलेख संकेत देता है कि तीर्थ यात्री गढ़वाल पर्यटन करते रहते थे।
दक्षिण गढ़वाल में मूर्ति भंजन कृत्य व दक्षिण गढ़वाल में हीन धार्मिक पर्यटन
मैदानी भाग विशेषतः उत्तर भारत में आतंकी, निर्दयी जन संहार प्रेमी , अधिकांश मुस्लिम अनपढ़ शासकों द्वारा मूर्ति -मंदिर विरोधी कृत्य आम बात थी। उथल पुथल में पहाड़ी उत्तराखंड की यात्रा अवश्य ही बाधित हुयी। सलाण (हरिद्वार से नयार नदी के दक्षिण क्षेत्र रामगंगा तक ) में मुसिलम लूटेरों द्वारा मंदिर लूटने की घटनाएं आम थी तो तीर्थ यात्रियों हेतु सुलभ क्षेत्र होने के बाबजूद दक्षिण गढ़वाल में पूजास्थल भंजन से तीर्थ यात्री तीर्थ यात्रा का लाभ नहीं उठा सकते थे।
इसी काल में व बाद तक कबीर , नानक व अन्य संतों के प्रभाव के कारण भी मूर्ति पूजा बाधित हुईं और उत्तराखंड पर्यटन बाधित हुआ। अनेक मंदिर संस्कृत शिक्षा केंद्र थे वे भी बंद हो गए। 1300 से 1500 ई तक बद्रीनाथ -केदारनाथ मंदिर पूजा व्यवस्था पर भी कोई प्रकाश नहीं पड़ता है।
ऐसा लगता है दक्षिण गढ़वाल में जैसे पांडुवला (भाभर ) कीखुदायी से पता चलता है की दक्षिण गढ़वाल में भी महत्वपूर्ण मंदिर रहे होंगे किन्तु तोड़ दिए जाने से अब उनका नाम नहीं मिलता है।
चांदपुरगढ़ निर्माण
चांदपुर गढ़ का निर्माण 1425 से 1500 मध्य किसी समय हुआ जिसका बिध्वंस चंद नरेश ज्ञान चंद द्वारा 1707 ई में हुआ। एक ही शिला पर दो 15 x 3 x 3 फ़ीट की सीढ़ियां साबित करती हैं कि वास्तु विज्ञान व परिवहन विकसित तो था किन्तु दक्षिण व पूर्व में उथल पुथल ने इस वास्तु विज्ञान पर विराम लगा दिया था।
नाथ संतों द्वारा यात्राएं
अजयपाल व सत्यनाथ गुरु जनश्रुति प्रमाणित करती हैं कि नाथपंथी गढ़वाल की यात्राएं करते रहते थे और राजनीति में दखल भी देते थे।
अजयपाल ने पहले चांदपुर गढ़ राजधानी छोड़ी व देवलगढ़ को राजधानी बनाया व फिर श्रीनगर में राजधानी स्थापित की। देवलगढ़ में रजरजेश्वरी की स्थापना की जो अब तक एक पवित्र पर्यटक स्थल है। देवलगढ़ में सत्यनाथ मठ निर्माण भी अजयपाल ने ही किया था।
श्रीनगर में राज प्रासाद
अजय पाल ने श्रीनगर में महल बनवाया था। जो 1803 के भूकंप में ध्वस्त हो गया था। चांदपुर गढ़ व श्री नगर महल निर्माण में शिल्पियों व अन्य कर्मियों का आंतरिक व बाह्य पर्यटन अवश्य बढ़ा होगा।
बद्रीकाश्रम में दंडी स्वामियों द्वारा पूजा अर्चना
रतूड़ी ने 1443 से 1776 तक बद्रीनाथ व जोशीमठ में पूजा अर्चना कर्ता 21 दंडी स्वामियों की नामावली दी है। वर्तमान रावलों के पूर्वज रावलों ने भी ब्रिटिश शासकों को नामावली दी किंतु वह केवल अपना स्वामित्व बचाने हेतु नकली नामावली थी।
दक्षिण भारतीय पुजारियों व उनके सहायकों का आना जाना लगा ही रहा।
अकबर का हरिद्वार आगमन
यह निर्वाध सत्य है कि गढ़वाल राजवंश का देहरादून तक राज्य फ़ैल गया था। अकबर से शाह वंश ने मधुर राजनैतिक संबंध बना लिए थे। अकबर को गंगा जल शायद हरिद्वार से जाता था।
अकबर द्वारा गंगा स्रोत्र की खोज
प्रणवानन्द ( Exploration in Tibet ) अनुसार अकबर ने गंगा स्रोत्र खोजने अन्वेषक दल भेजा था। वः दल मानसरोवर तक पंहुचा था।
अकबर का ताम्रमुद्रा निर्माणशाला ( टकसाल )
अकबर की ताम्र मुद्रा निर्माण शाला हरिद्वार में थी और ताम्बा गढ़वाल की खानों से निर्यात होता था। गढ़वाल में मुगल मुद्राओं का प्रचलन भी सामन्य था।
गढ़ नरेश को ‘शाह ‘ पदवी
बलभद्र से पहले जनश्रुति व अभिलेखों में गढ़ नरेश का नामान्त पाल था। किन्तु बलभद्र का नामन्त शाह है। बलभद्र को शाह पदवी दिलाने व मिलने पर कई जनश्रुतियां है और दो बहगुनाओं , बर्त्वाल अदि को श्रेय दिया जाने की जनश्रुति भी है।
यह तथ्य प्रमाणित करता है कि गढ़वाल से राजनायक फतेहपुर , दिल्ली आते जाते रहते थे।
बर्त्वाल जनश्रुति चिकित्सा विशेषग्यता की ओर ही संकेत करता है। याने मनोचिकत्सा ( आयुर्वेद में भूत विद्या ) में गढ़वाल को प्रसिद्धि थी।
गढ़वाल से निर्यात
मुगल साम्राज्य में अकबर काल से ही ताम्बे , लोहे , लौह -ताम्र वस्तुओं ,खांडे , खुकरियों , स्वर्णचूर्ण , सुहागा , ऊन , चंवर कस्तूरी वन काष्ट व उनसे निर्मित वस्तुओं , गंगाजल , दास दासियों के अतिरिक्त भाभर के चीतों, हिरणों का निर्यात होता था। पहाड़ी घोड़े भी निर्यात किये जाते थे।
आयुर्वेद निघंटु रचनाएँ व औषधि पर्यटन
पांचवीं सदी से आयुर्वेद निघंटु (शब्दकोश ) रचने या संकलित होने शुरू हो गए थे। अष्टांग निघण्टु (8 वीं सदी ) , पर्याय रत्नमाला (नवीन सदी ) , सिद्धसारा निघण्टु (नवीन सदी ) , हरमेखला निघण्टु (10 वीं सदी ) ,चमत्कार निघण्टु व मदनांदि निघण्टु (10 वीं सदी ) , द्रव्यांगनिकारा ,द्रव्यांगगुण ,धनवंतरी निघण्टु , इंदु निघण्टु , निमि निघण्टु ,अरुण दत्त निघण्टु , शब्द चंद्रिका , ( सभी 11 वीं सदी ); वाष्पचनद्र निघण्टु , अनेकार्थ कोष ( दोनों 12 वीं सदी ) ; शोधला निघण्टु , सादृशा निघण्टु ,प्रकाश निघण्टु , हृदय दीपिका निघण्टु (13 वीं सदी ) ; मदनपाल निघण्टु ,आयुर्वेद महदादि ,राज निघण्टु , गुण संग्रह (सभी 14 वीं सदी ), कैव्यदेव निघण्टु , भावप्रकाश निघण्टु , धनंजय निघण्टु (नेपाल ) ,आयुर्वेद सुखायाम ( सभी 16 वीं सदी के ) आदि संकलित हुए।
इस लेखक ने किसी अन्य उद्देश्य से अनुभव किया कि इन निघण्टुओं में मध्य हिमालय -उत्तराखंड के कई ऐसी वनस्पतियों का वर्णन है जो या तो विशेषरूप से यहीं पैदा होती हैं या मध्य हिमालय में प्रचुर मात्रा में पैदा होती हैं। जैसे भुर्ज, भोजपत्र या पशुपात की औषधि उपयोग कैव्य देव निघण्टु ,भावप्रकाश निघण्टु व राज निघण्टु में उल्लेख हुआ है। भोजपत्र औषधि का वर्णन अष्टांगहृदय (5 वीं सदी ) में उत्तरस्थान अध्याय भी हुआ है।
यद्यपि इस क्षेत्र में खोज की अति आवश्यकता है किन्तु एक तथ्य तो स्पष्ट है कि इतने उथल पुथल के मध्य भी गढ़वाल , कुमाऊं , हिमाचल , नेपाल की औषधि वनपस्पति प्राप्ति , इन वनस्पतियों का औषधि निर्माण हेतु कच्चा माल निर्माण विधि या निर्मित औषधि विधियों के ज्ञान व अन्य अन्वेषण का कार्य व मध्य हिमालय व भारत के अन्य प्रदेशों में औषधि ज्ञान का आदान प्रदान हो ही रहा था। उत्तराखंड से औषधीय वनस्पति , औषधि निर्माण हेतु डिहाइड्रेटेड , प्रिजर्वड कच्चा माल , या निर्मित औषधियों का निर्यात किसी न किसी माध्यम से चल रहा था। उसी तरह आयात भी होता रहा होगा।
उत्तराखंड में यूनानी चिकत्सा का आगमन
सुल्तानों के उत्तराखंड सीमा पर शासन व मुगल सीमाओं के होने से हरिद्वार से लेकर अवध तक मुस्लिम समाज के बसे होने से इन स्थानों में यूनानी चिकत्सा का होगा। और धीरे धीरे यूनानी चिकत्सा गढ़वाल -कुमाऊं के मैदानों में प्रचलित हुयी होंगी। दवाई , दारु , बलगम , आदि शब्द गढ़वाली -कुमाउँनी भाषा में प्रचलित होना द्योतक है कि यूनानी चिकत्सा भी समाज में आने लगी होगी।
दिल्ली के सुल्तानों ने यूनानी चिकत्सा हेतु ‘दारुल सिफास ‘ बनवाया व यूनानी चिकत्सा को विकसित किया।
दिल्ली के सुल्तानों का युद्ध हेतु भाभर -बिजनौर आदि आना संकेत देता है कि उनके साथ ‘दारुल सिफास के हकीम भी रहे होंगे , इन हकीमों ने स्थानीय हकीमों को दारुल -सिफास का परसहिस्खन वषय ही दिया होगा। यह शिक्षा पहले हरिद्वार से पीलीभीत -अवध तक प्रसारित हुई होंगी फिर धीरे ढेरी गढ़वाल -कुमाऊं अवश्य प्रसारित हई होगी। मुगल काल में भी यूनानी चिकित्सा का विकास हुआ जिसने उत्तराखंड चिकित्सा तंत्र को प्रभावित किया ही होगा। मुगल काल में अकबर दरबार में अब्दुर रहमान जिसे फ़ारसी , संस्कृत का ज्ञान था जैसे विद्वानों के कारण आयुर्वेद व यूनानी चिकत्सा में संष्लेषण की नींव पड़ी। अकबर के सभसदों में हाकिम हमाम प्रसिद्ध हकीम अकबर के नवरत्नों में एक रत्न था।अकबर के पांच चिकित्स्क हकीम अब्दुल फतह , हकीम शेख फयाजी , हकीम हमाम , हकीम अली और हकीम आईन -उल -मुल्क राजकीय चिकित्स्क थे।
भावप्रकाश निघण्टु रचयिता भाव मिश्र बादशाह अकबर का राजवैद्य था। सिद्ध करता है कि आयुर्वेद -यूनानी चिकित्सा में संश्लेषण की नींव अकबर काल से ही पड़ी होगी। मेथी का दवाई में उपयोग सर्वपर्थम भावप्रकाश में उल्लेख हुआ जिसे दिपानी (हाजमा वर्धक ) नाम दिया गया।
अकबर व जहांगीर की बेगमों को चिकत्सा व दवाइयों का भी ज्ञान था।
हुक्के का अन्वेषण
अकबर काल में सन 1604 -1605 तम्बाकू धूम्रपान का प्रवेश हुआ तो अकबर के राजकीय हकीम हकीम अब्दुल फतह ने तम्बाकू का स्वास्थ्य हेतु हानिकारक पदार्थ के कारण विरोध किया किन्तु अकबर ने की इजाजत दे दी। तब हकीम अब्दुल फतह ने पता लगाया कि यदि धुंए को पानी से गुजरा जाय तो तम्बाकू का प्रभाव कम हो जाता है। फिर हकीम ने हुक्के का अन्वेषण किया (ए चट्टोपध्याय , ऐम्परर अकबर ऐज ये ऐंड हिज फिजिशियन्स , 2000 इंडिअयन इंस्टीच्यूट ऑफ हिस्ट्री मेडकल , हैदराबाद बुलेटिन ) । कुछ समय पश्चात हुक्का धूम्रपान स्टेटस सिंबल हो गया। लगता है उत्तराखंड में हुक्का धूम्रपान 1650 के बाद प्रचलन में आया होगा। थक बिसारने, मन व्याकुलता कम करने हेतु धूम्रपान कैसे उत्तराखंड पंहुचा होगा पर खोज होनी बाकी है।