उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -39
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
1700 से 1790 तक कुमाऊं पर ज्ञानचंद /ज्ञान चंद्र (1698 -1708 ई ), जगत चंद (1708 -1720 ) , देवी चंद (1720 -1727 ), अजित चंद (1727 -1729 ), बाली कल्याण चंद (1729 कुछ समय ) , डोटी कल्याण चंद (1730 -1748 ),दीप चंद (1748 -1777 ),मोहन चंद पहली बार (1777 -1778 ), प्रद्युम्न चंद (1779 -1786 ) , मोहन चंद पुनः ( 1786 -1788 ), शिव चंद (1788 ), महेश चंद 1788 -1790 ) शाशकों का शासन रहा।
1700 से 1790 ई काल कुमाऊं हेतु उथल पुथल व छोटे बड़े युद्ध से अधिक कुमाऊं में राज्याधिकारियों के छल कपट , एक दुसरे को पछाड़ने , राजा को सामने रख स्वयं राज करने , राज्याधिकारियों द्वारा राजधर्म के स्थान पर स्वार्थ धर्म ,रोहिला आक्रमणों का इतिहास है और अंत में नेपाल द्वारा कुमाऊं हस्तगत का इतिहास ही है।
1700 से 1790 तक युद्ध पर्यटन , छापामारी पर्यटन , जासूसी पर्यटन , रक्षा पर्यटन अधिक रहा जो संकेत देते हैं कि पारम्परिक पर्यटन विकास नहीं हुआ। चंद्र /चंद शासन में कोई ऐसा धार्मिक प्रोडक्ट /मंदिर नहीं निर्मित हुआ जिसने भारतवासियों को आकर्षित किया हो। चंद शासक पुराने मंदिर व्यवस्था हेतु को गूंठ भूमि देते रहे किन्तु इसी दौरान बहुत से प्राचीन मंदिर ध्वस्त हुए , उन मंदिरों से मूर्तियां चोरी हुईं जो स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहा। चंद शासन में कुछ मंदिर निर्मित हुए किन्तु शिल्प कला दृष्टि से कत्यूरी काल से दोयम ही थे।
बहुत से मंदिर जैसे गोल्यु क्षेत्रपाल देवता मंदिर वास्तव में जन आस्था से निर्मित हुए।
मानसरोवर यात्रा हेतु यात्री आते रहते थे। पूर्वी भारत से बद्रीनाथ जाने वाले यात्री कुमाऊं होकर आते थे किन्तु लगता है यात्रा ह्रास ही हुआ।
कुमाऊं के माल /भाभर में सर्वाधिक उथल पुथल होती रही। फिर भी भाभर से बन वस्तुओं जैसे बाबड़ , मूँज ,छाल , जड़ , जड़ी बूटी , लकड़ी कत्था , बांस व अन्य लकड़ी, बनैले पशु -पक्षी , जानवरों की खालें व अन्य अंगों का निर्यात होता रहा।
चंद /चंद्र शासन काल
चंद या चंद्र शासन में पारम्परिक वस्तुओं जैसे जहनिज , ऊन , बनैले वस्तुएं , जड़ी बूटियां , भांड ,खड्ग , कागज , भांग वस्त्र , लाख , गोंद आदि निर्यात होती रहीं। निर्यात ने कुमाऊं को विशेष छवि प्रदान की।
चंद /चंद्र शासन में बाह्य ब्राह्मण व राजपूत पूरे कुमाऊं में बसे तो एक नए सामाजिक समीकरण को जन्मदायी रहा।
मंदिरों में पूजा व्यवस्था हेतु गूंठ /जमीन दिया जाता था।
कुमाऊं शासकों व उनके दीवानों व अन्य अधिकारियों द्वारा मुगल बादशाहों के दरबार में जाने से कुमाऊं में कई नए सांस्कृतिक बदलाव आये जैसे वस्त्र , वस्त्र सिलाई कला , भोजन , नाच गान , नाच गान हेतु वैश्याओँ , कलाकारों का आयात , ढोल- दमाऊ वादन व ढोल वाद्य हेतु , नथ निर्माण कला आयात , व ऐसे कलाकारों, दर्जियों का आयात भी सत्रहवीं सदी से शुरू हो गया था।
विद्वानों का आगमन व पलायन भी रहा जिसने कुमाऊं की छवि वृद्धि की। नाथ गुरुओं का भ्रमण होता रहा।
कई कुमाउनी विद्वानों ने कुमाऊं ( पदम् देव पांडे ) या बनारस (प्रेम निधि पंत , विश्वेश्वर पांडे ) में संस्कृत में पोथियाँ रचीं जो विद्वानों द्वारा सराही गयीं।
सैनिक प्रशासन में मुगल शैली का आगमन से प्रशासन में तकनीक परिवर्तन हुआ। सैनिकों हेतु मैदान पर निर्भरता बनी ही रही अर्थात सैनिक बाहर से प्रवास करते रहे।
रोहिला आक्रमण कई नई सांस्कृतिक परिवर्तन लाये होंगे।
गढ़वाल -कुमाऊं में छोटे मोटे युद्ध ने कुमाऊं से बद्रीनाथ यात्रा मार्ग भी प्रभावित किया ही होगा। चंद्र शासन में कोई ऐसा प्रमाण नहीं मिला है कि जिससे सिद्ध हो कि किसी प्रसिद्ध व्यक्ति ने कुमाऊं मार्ग से बद्रीनाथ यात्रा की हो।
इतिहासकार बद्री दत्त पांडे अनुसार कुमाऊं में कई महाभारत कालीन पुण्य या प्रसिद्ध स्थान हैं। किन्तु कत्यूरी या चंद शासकों ने इन प्राचीन स्थानों का प्रचार नहीं किया जिससे पर्यटन विकसित होता। कत्यूरी निर्मित मंदिर स्थानों की प्रसिद्धि हेतु चंद काल में कोई नायब कार्य नहीं हुआ। जिस तरह महाभारत व कालिदास व अन्य संस्कृत ग्रंथों में गढ़वाल का वर्णन मिलता है उस तरह कुमाऊं का वर्णन नहीं मिलता है। अर्थात कुमाऊं प्रसिद्धि हेतु पहले भी व चंद वंश युग में भी जनसम्पर्क अभियान नगण्य था।
चंद शासन में कोई ऐसी कला भी विकसित नहीं हुयी जो आज प्रसिद्धि दिला सके।