आज फिर बरखा लैगी,
भैर भारी जाडू़ ह्वैगी,
डांडा-कांठों पड़िगी बर्फ,
झगुलि,टोपली भैर ऐगी।
आज फिर…..
लरक-तरक बरखा धार,
किच-बिच गौं-गुठ्यार,
चुला मां चढ़ीं ‘चा’ कितली,
भट्ट भुजैंणा बार-बार,
सुंदरा बौ की ब्यांईं भैंसी,
ओबरा भितर रिंगदि रैगी।
आज फिर….
कनकै ल्यौण न्यार-पात
ठंडा न जाम खुट्टा-हाथ
हर्यूं घास नी देखणी भैंसी,
सियेंण कनै अब सैरी रात
सोचि-सोचि झूरीगि परांण,
बौजी थैं मुंडारु ह्वैगि।
आज फिर…..
बजार की क्या सुणौं बात,
दिन-दोफरा जनि पड़ीं रात
कुल चुनौं की छ्वीं लगणीं,
बल अबारि दौं हम ‘उसके साथ’
काम-धाम ठप पड़्यूं च,
निर्भगी ठंडन कुल्फी जमी च।
आज फिर..
जगा-जगा मां जगीं च आग,
रेवड़ी,मूंगफल्यों कू स्वाद
जाड़ा न सिसरांणा सबि
घाम कु गाणा छन राग
कुयेड़ा की घणिऽ चादर मां
घाम-ज्वोन सब ढकीगि,
आज फिर बरखा लैगी,
आज फिर बरखा लैगी।
मनोज रमोला’मृदुल’® घनशाली टिहरी गढ़वाल
घनसाली, टिहरी गढ़वाल।