पतंजलि योग सूत्र : गढ़वाळि अनुवाद , साधना पाद:
अनुवादक – भीष्म कुकरेती
s = आधा अ
तपः स्वाध्येश्वरप्राणिधानानि क्रियायोगः I 2 . 1 I
तप स्वाध्याय अर ईश्वरै शरणागति यि तिन्नी ‘क्रियायोग ‘ च
समाधिभावनार्थ: क्लेशतनूकरणार्थश्च । 2. 2।
या क्रिया योग समाधि क सिद्धि करणवळ अर अविद्या आदि क्लेशों तै क्षीण /कम करण वळ हूंद।
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः ।2 .3।
अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष अर मृत्यु डौर यी पांच क्लेशदुःख छन।
अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ।2 . 4 ।
प्रसुप्त (निष्क्रिय ) , शिथिल ,दब्यां अर कार्य प्रवृत (कार्य म लग्यां ) , अस्मिता , राग , द्वेष , मृत्यु डौर आदि सब्युं की ब्वे (जननी ) अविद्या च।
अविद्या = भौतिक , ज्ञान बस ।
अनित्याशुचिदुः खानात्मसु नित्यशुचि सुखात्म्ख्यातिरविद्या ।2 . 5 ।
अनित्य , अपवित्र , दुःख अर अनात्मा म क्रमशः नित्य , अपवित्र , सुख अर आत्मा दिखण अहम या अस्मिता च।
पतंजलि योग सूत्र : गढ़वाळि अनुवाद , साधना पद भाग – 2
पद 6 -10
s = आधा अ
–
दृगदर्शन शक्त्यौरेकात्मतेवा s स्मिता। -2 . 6
ड्रिंक शक्ति याने आत्मा अर दर्शन शक्ति कु एक जनि भान /समजण ही त अस्मिता / अहम च।
सूखानु शयी रागः 2. 7
सुख भोगण ै इच्छा क उपरान्त सुख भोगणै इच्छा राग च।
दुखानुशयी द्वेषः I 2. 8
दुःख घीण पैदा करद या दुःख की प्रतीति क पैथर रण वळ क्लेश दुःख च।
स्वरस वाही विदुषोs पि तथा रुढ़ो sभि निवेशः I 2. 9
जु रुढ़ि (परम्परागत स्वभाव ) बिटेन चल्युं आयुं च अर जु मूर्खों भांति विद्वानों म बि हूंद वो अभिनिवेश’ (मुरणो डौर ) ‘ च।
ते प्रतिपरसवहेयाः सूक्ष्मा। 2. 10
सूक्ष्म क्लेश /दुःख प्रतिप्रसव अर्थात योगिक (जटिल ) विधि से कम या समाप्त करे जांदन।
ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः II 2,11 I
सकल व लघु मनस्ताप जनित अस्थिर चेतना ध्यान से समाप्त करे सक्यांद।
क्लेशमूल: कर्मशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीय: ।I 2,12 ।
वर्तमान व भावी जन्मों म भुगण योग्य वासनाओं ( कर्म संस्कारुं समुदाय ) का मूल ‘क्लेश ‘ च। याने शेष बच्यां संताप अगवाड़ी अस्थिरता लांदन।
सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा: ।2,13 ।
जब तक कर्म मूल विद्यमान तब तलक पुनर्जन्म, आयु (जीवन) अर भोग विद्यमान डाला।
ते ह्लादपरिताप फलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात्।। 2,14 ।
उ (जन्म , आयु अर भोग) हर्ष अर शोक रूप फल दीण वळ हूंदन किलैकि ऊंक पुण्य कर्म अर पाप कर्म द्वीइ इ कारण हूंदन।
परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्ति विरोधाश्च दुःखमेव सर्वविवेकिनः II2,15 I
परिणाम दुःख, ताप/संताप दुःख, अर संस्कार दुःख यी तिनि प्रकार का दुःख सब म विद्यमान रौणै कारण अर तिनि गुणों ( सत्व , रज , तम) की वृत्यों म विरोध हूणो कारण विवेक्यूं कुण सबका सब दुःख स्वरूप इ छन।
हेयं दुःखमनागतम् । 2 ,16 ।
आण वळ दुःख नष्ट करण योग्य च।
दृष्ट्रश्ययोः संयोगो हेयहेतु । 2 ,17 ।
दृष्टा अर दृश्य को संयोग दुःख कारण च याने प्रकृति ( जो दिख्यांद च ) तैं आत्मा (जो दिखुद च ) समझ ण ही दुःख कारण च।
प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं । 2 ,18 ।
प्रकृति तीन प्रकार का हूंद – सत्व , राजस अर तामस, अर एक विकासज तत्व , मन , धारणा इन्द्रिय , अर क्रियान्ड्रिया छन,अर मन , अन्य इन्द्रिय , कार्येन्द्रिय सब प्रकृति अर आत्मा क सेवा/भोग कुण छन। । अर्थात प्रकाश , क्रिया अर स्थिति जैक स्वाभाव म च , अर भूत व इन्द्रियाँ जैक स्वरूप छन , पुरुषौ कुण भोग अर मुक्ति सम्पादन कर्ण ही जैक प्रयोजन हो वो इन दृश्य च।
विशेषविशेषलिंगमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि । 2 , 19 ।
गुण लक्षण पैदा करदन अर साक्षी (जु दिखुद ) तै ऊर्जा संचार करदन। यूं गुणुं क अलग अलग सीढ़ी हूंदन – विशेष , अ -विशेष व भेद योग्य अर अ -भेद योग्य।
दृष्टा दृष्टिमात्रः शुद्धोsपि प्रत्ययानुपश्य: । 2 , 20 ।
चरतना मात्र (आत्मा ) दृष्टा सर्वथा शुद्ध च , तो बि बुद्धि वृत्ति का अनुरूप दिखण वाळ च। अर्थात प्रकृति जड़ च तो देख नि सकदी अर आत्मा दिखण वल च किन्तु शुद्ध , निराकार , असंग , कूटस्थ , च अर ना ही कर्ता च ना ही भोक्ता।
तदर्थ एव दृश्य स्यात्मा II 21 II
उ मथ्याक दृश्य वैकुण इ (आत्मा ) च। अथवा प्रकृति अर बुद्धि आत्मा क सेवा वास्ता कुण च।
कृतार्थ प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारण त्वात् II 22 II
सिद्ध मनिखों कुण यी दृश्य भले इ समाप्त ह्वे गे हो किन्तु साधारणुं कुण नष्ट नि हुयुं हूंद।
स्वस्वमिशकत्यो स्वरूपोपलब्धिहेतु: संयोग II 23 II
दृश्य अर साक्षी (आत्मा ) कु मिलन अर्थ च कि आत्मा अपण सत्य रूप प्रकृति से मिलन।
तस्य हेतुरविद्या II 24 II
वांकु अर्थ च (प्रकृति तै आत्मा समझण ) बल अविद्या ( भौतिक रसायन विद्या किन्तु बिन मनोविज्ञान /आध्यत्म )
तदभावात् संयोगाभावो हानं तदृशे: कैवल्यम् II 25 II
ये अविद्या ( बिन मनोविज्ञान व अध्यत्म विज्ञान ) क कारण प्रकृति अर आत्मा मिलन नि हूंद अर पुनर्जन्म आदि दुःख (हान )अंत हूंद। यु इ कैवल्य (आनंद का आनंद ) .
विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः II -2, 26
निश्चल अर निर्दोष विवेकज्ञान ‘हान’ कु उपाय च
तस्य सप्तधा प्रांतभूमि: प्रज्ञा II 2 ,27
ये पुरुष की सात प्रकार की सबसे ऊंची अवस्था वळि बुद्धि हूंद । 2 , 27
योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेक ख्यातिः II 2 , 28
योगांगों का अनुष्ठान करण से अशुद्धि कु क्षय ह्वेका विवेक ख्याति पर्यन्त ज्ञान को प्रकाश हूंद ।
यमनियमासन प्राणायाम प्रत्याहार
धारणा ध्यान समाधयोs ष्टावंगानि II 2 , 29
यम , नियम , आसन , प्रणायाम , प्रत्याहार ,धारणा , ध्यान , और समाधि योग का आठ अंग छन ।
अंहिसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्याs परिग्रहा यमाः II 2 , 30
अहिंसा , सत्य , अचौर्य , ब्रह्मचर्य , अपरिग्रह (संग्रह नि करण ) यी पांच यम छन।
जातिदेशकाच्छिन्ना: सार्व भौमा महाव्रतम । 2 . 31 ।
मथ्याक यम जाति, देश, काल अर समौ की सीमा से रहित सार्वभौम हूण पर ‘महाव्रत ‘ ह्वे जांद।
शौचसंतोषतप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियम: । 2. 32 ।
शौच (पवित्रता ) , संतोष , तप , स्वाध्याय, अर ईश्वरै शरणागति यी पांच नियम छन।
वितर्कबाघने प्रतिपक्षभावनम्। 2 , 33 ।
जब वितर्क (यम नियमों व विरोधी भाव ) यम नियमों म बाधा उतपन्न ह्वावो तो ऊंको विरोधी भावों चनितं करण चयेंद।
वितर्का हिंसादया: कृतकरितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका
मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला आईटीआई प्रतिपक्ष भावनम्। 2 , 34 ।
यम नियमों विरोधी हिंसा अदि भाव ‘वितर्क’ ( अनिश्चित ज्ञान ) बुले जांदन। यी तीन प्रकारै हूंदन – १- अपर कर्यां , २ -दुसरों करायां ३ -दुसरों क्रयों को समर्थन। यूंक कारण लोभ , मोह अर रोष छन। यी लघु /छुट , मध्यम अर अधिमात्रा प्रकारौ हूंदन। यी दुःख अर अज्ञान रूप का अनंत फल दीण वाळ छन। इन विचार करण इ प्रतिपक्ष की भावना च।
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्स ंनिधौ वैरत्याग्य। 2 , 35 I
अहिंसा की दृढ स्तिथि ह्वे जाण पर वै योगी का न्याड़ -ध्वार का सब प्राणी वैर त्याग दीन्दन ,
पतंजलि योग सूत्र : गढ़वाळि अनुवाद , साधना पाद भाग – 9
पद संख्या 41 से 45 तक
s = आधा अ
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सत्व शुद्धिसौमनस्यैकाग्रयेयिन्द्रियज्यात्म दर्शन योग्यत्वानि च। 41 ।
यांक अतिरिक्त , शौच से अतःकरण की शुद्धि , मन म प्रसन्नता , चित्त की एकाग्रता , इन्द्रियूँ वशम हूण , अर आत्म दर्शन हेतु योग्यता बि हूंद।
संतोषादनुत्तम सुःखलाभम। 42 ।
संतोष से उत्तमोत्तम सुख मिलद।
कायेंद्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपस: । 43 ।
तप से अशुद्धि नाश हूण से शरीर अर इन्द्रियुं सिद्धि हूंद (वशम आण ) I
स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोग: । 44 ।
‘स्वाध्याय’ से इष्ट दिवता का दर्शन हूंदन।
समाधिसिद्धरीश्वरप्रणिधानात्। 45 ।
अनुवाद सर्वाधिकार @ भीष्म कुकरेती
शेष पतंजलि योग सूत्र अनुवाद अग्वाड़ी खंडोंम
पतंजलि योग सूत्र : गढ़वाळि अनुवाद , साधना पाद भाग – 10
पद 46 संख्या से 50 तक
s = आधा अ
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स्थिरसुखमासन् I 46 I
स्थिर अर जैमा सुख से बैठे जये जावो वी ‘आसन ‘ च।
प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम्। 47 ।
उक्त आसन प्रयत्न की शीतलता से अर अनंत (परमात्मा ) म मन लगाण से सिद्ध हूंद।
ततो द्वन्दानभिघात। 48 ।
वे आसन सिद्ध हूण से सर्दी, घाम /गर्मी , भूक -तीस ,हर्ष , विषाद जन द्वंदों आघात नि लगद।
तस्मिन् सति श्वास-प्रश्वासयोर्गति विच्छेद: प्रणायाम्। 49 ।
वे आसन की सिद्धि हूण पर श्वास , प्रश्वास की गति रुक जाण इ ‘प्रणायाम ‘ च ।
बाह्याभ्यंतरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसंख्याभि। 50 ।
बाह्य, आभ्यांतर , और स्तम्भ, वृतिवाला प्राणायाम , देश , काल , और संख्या से दिख्युं लम्बो अर हळको हूंद।
शेष पतंजलि योग सूत्र अनुवाद अग्वाड़ी खंडोंम
पतंजलि योग सूत्र : गढ़वाळि अनुवाद , साधना पाद भाग – 11
51 पद संख्या से तक
बाह्याभ्यन्तरबिषयाक्षेपी चतुर्थ I 51 I
भैर अर भितर का बिषयों त्यागण से अफि हूण वळ चौथो प्रकारौ प्रणायाम च।
तत: क्षीयते प्रकाशावरणम् I 52 I
वांसे (प्राणायामौ हभयास ) ज्ञानरूपी प्रकाश तै ढकण वळ अंध्यरौ खोळ हीन ह्वे जांद।
धारणासु च योग्यता मनस: I 53 I
प्राणायाम सिद्धि से मनम धारणै योग्यता ऐ जांद।
स्वबिषयासम्प्रयोगे चित्तस्यस्वरुपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार: । 54 I .
जब इन्द्रियों कु शब्द आदि स्वबिषयों से संबंध नि रौंद त ऊंको चित्त स्वरूप म तल्लीन ह्वे जांद तो वीं स्वस्थ तै प्रत्याहार ‘ बुल्दन।
तत: परमावश्यतेन्द्रियाणाम्। 55 ।
इनम प्रत्याहार से इन्दिर्यां पूरी बस म ह्वे जांदन।
इति साधन पाद सम्पन
अनुवाद शास्त्री – भीष्म कुकरेती