आंचलिक नाटकों में महिला नाट्यशिल्पियों की अल्प संख्या एक चुनौती
–
आंचलिक (गढ़वाली कुमाऊंनी ) नाटकों की चुनौतियां -4
–
भीष्म कुकरेती (भारतीय साहित्य इतिहासकार )
–
गढ़वाली -कुमाउँनी अर्थात आंचलिक नाट्य संसार आधुनिक युग अर्थात ब्रिटिश युग या बीसवीं सदी के पूर्वार्ध से ही कई चुनौतियों का सामना करता आ रहा है। गढ़वाली नाटकों में सबसे पहले टिहरी व देहरादून में भी स्त्री चरित्र निभाने वाली स्त्री अभिनेत्रियों का न मिलना समस्या को झेलना पड़ा। यहां तक कि दिल्ली , चंडीगढ़ में भी पहले पहल गढ़वाली नाटकों में स्त्री चरित्र पुरुष ही निभाते थे। गढ़वाली रामलीलाओं में मुम्बई में भी कई महिला चरित्र पुरुषों द्वारा ही निभाए गए थे। ग्रामीण उत्तराखंड में तो सन ८० या ९० तक भी रामलीलाओं में स्त्री चरित्र पुरुष ही निभाते थे। आज भी कई गाँवों में महिला चरित्र पुरुष कलाकार ही निभाते हैं।
नाटकों व रामलीला में स्त्री चरित्रों को पुरुष कलाकार द्वारा निभाने के पीछे उत्तराखंडी समाज की आधारभूत चरित्र ही उत्तरदायी है।
सबसे बड़ी समस्या तब यह थी कि लड़कियों को विद्यलय ही नहीं भेजा जाता था तो महिलाओं में शिक्षा आभाव था तो नाटकों में महिला भाग लेने में असमर्थ थीं।
ग्रामीण उत्तराखंड में महिलाओं को नाट्य खेलना बुरा माना जाता था व महिला को बादण ‘ नाम दिया जाता था। उत्तराखंड में व्यवसायिक लोक नाटकों के अभिनेता अभिनेत्री बादी -बादण या शिल्पकार व शिल्पकार महिला होतीं थीं। अर्थात यदि रामिला मंचन में में कोई स्वर्ण महिला पदापर्ण भी करती तो उसे समाज ओछी दृष्टि से ही देखता।
मुझे याद है सन ७२ में जब हिमानी भट्ट आदि गढ़वाली लड़कियां थियटर में पदापर्ण कर रहीं थीं तो समाज में बैठकों (कचेड़ी ) में इनके प्रति जातिवाचक शब्दों का प्रयोग होता था कि द ल्या अब बामणु बेटी बादण क पाठ खिलणा छन।
मुझे याद है मैं तब नेशविला रोड में रहता था तो रक जुयाल परिवार में ससुर जी तबला बजाते थे व उनकी बहु नृत्य करतीं थीं तो महिलाएं कचेड़ी में कहती थीं – द द्याखौ कन जमन आयी ससुर ब्वारी बादी -बादण जन छन नचणा।
तब महिला स्टेज कलाकारों की सम्मान दृष्टि की बहुत कमी थी तो गढ़वाली अपने पुत्रियों को नाटकों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहन तो दूर हतोत्साहित ही करते थे। मुम्बई , दिल्ली व अन्य शहरों में सांस्कृतिक कार्यकर्मों में पहले पहल महिलाओं ने नृत्य व गायन में भाग लेना शुरू किया तब धीरे धीरे नाटकों में भाग लेना शुरू किया।
माता पिताओं की पुत्रियों को अभिनय या अभिव्यक्ति लाने तब सीमा से बाहर की उदासीनता थी। वैसे पुत्र की तुलना मी आज भी लड़कियों को हीन मात्रा में माता पिता प्रोत्साहन देते हैं। दिल्ली में सबसे पहला नाटक पाराशर गौड़ कृत औंसी की रात ‘नाटक है जिसमे सबसे पहले स्त्री चरित्र स्त्री (कुसम बिष्ट ) ने निभाया।
बेटा घर से बाहर कभी भी जाय कभी भी घर लौट आये सामन्य संस्कृति है किंतु बेटी का बाहर घूमना वर्जित है या बुरा है वाली विचार संस्कृति तो वर्तमान में अस्तित्व में है और यह मानसिकता महिला कलाकारों को नाटक प्रवेश में एक चुनौती या रुकावट ही है। महिलाओं को हीन स्वतन्त्रता व अन्य सामजिक हीनताएं (जैसे उच्चकों द्वारा छेड़खानी आदि भी ) भी महिलाओं को नाटकों में हीन भागीदारी होना भी उत्तरदायी हैं।
कई बार देखा गया कि मायके में लड़की नाट्य कार्यों में भाग लेती हैं किन्तु ससुराल में ससुराल वालों के हतोत्साही विचारधारा से नाट्य कर्म छोड़ देती हैं।
समज पुरुषोन्मुखी होने से महिला चरित्र उन्मुखी नाटक नहीं लिखे जाते हैं व इससे महिला चरित्रों की अनदेखी आम बात है। गढ़वाली में तीलू रौतेली छोड़ कोई नाटक ऐसा देखा गया जो महिला चरित्र को सही महत्व देता हो। फिल्मों में भी पुरुष उन्मुखी चरित्र ही अधिक रचे जाते हैं तो उनमे भी महिला चरित्र के प्रति उदासीनता ही देखि गयी है। केवल नाच गान तक सीमित होती हैं महिला चरित्र।
अब तो थोड़ा सुधर है किन्तु साधारणतया नाट्य गृह या शूटिंग स्थलों में महिला अभिनेत्रियों हेतु महिला अनुसार सुविधाएँ नहीं मिल पाती हैं जो महिला कलाकार हेतु हतोत्साह फ्लू ही है।
महिला कलाकार को पुरुष कलाकार की तुलना में हीन शुल्क (वेतन ) मिलता है।
कार्यलयों में भी पुरुष कलाकार सरलता से नाटक पूर्वाभ्यास हेतु कार्यलय से बाहर आ जाता है किन्तु महिला कर्मी को कई अधिक परेशानियों से गुजरना पड़ता है।
महिला को परिवार , बच्चों की देखभाल भी करनी होती है जबकि पुरुष के जिम्मे बहुत हीन उत्तरदायित्व होते हैं। अर्थात महिला नाट्यकर्मियों को पारिवारिक झंझटों से अधिक जूझना पड़ता है बनिस्पत पुरुषों के। थियटर में पुरुषों का राज है तो महिला कर्मियों की सहूलियत का ध्यान हीन ही रखा जाता है।
गर्भवती महिला का नाटक में भाग लेना कई समस्या पैदा कर सशक्त है।
नाटक संस्था में महिला कलाकारों की विशेष समस्याओं पर सोचा ही नहीं जाता है।
महिला कलाकारों को शोषित किया जाता है।
महिला की विद्व्ता को लगभग हर वर्ग /समाज में हीन ही आंका जाता है। शायद तभी तो गढ़वाली में डा आशा रावत, सुशीला रावत के अतिरिक्त महिला नाटक रचनाकार नहीं मिलते हैं व महिला निर्देशकों का भी अकाल है (सुशीला रावत छोड़कर ) । उपासना सेमवाल व सुमन गौड़ लघु नाटकों /स्किट्स तक ही प्रसिद्ध हैं।
घर परिवार वालों द्वारा एक महिला नाट्यकर्मी को न समझना भी एक चुनौती है।
गढ़वाली व कुमाउँनी में किसी भी तरह का फेमिन्स्ट प्लयेज आंदोलन (महिला नाट्यकर्मी आंदोलन ) का न चलना भी एक चुनौती माना जायेगा
फिल्मों में अधिक प्रसिद्धि का मिलना भी आंचलिक नाटकों हेतु एक चुनौती है।
गढ़वाली नाटक को सबसे बड़ा धक्का तब लगा जब गढ़वाल में बादी -बाद ण संस्कृति समाप्त हुयी व जनता के मध्य लोक को समझकर लोक नाटक (गद्यात्मक भी ) रचने बंद हो गए व ग्रामीण परिवेश में स्वत् प्रशिक्षण संस्कृति ही नष्ट हो गयी।
जब पुरुष -महिला नाट्यकर्मियों में अधिक अनुपातिक अंतर् होगा तो भी महिला नाट्यकर्मियों की संख्या हीन ही होती रहेगी।
अब महिला या लड़की का टीवी सीरियलों व फिल्मों, यूट्यूब , स्किट्स में कार्य करना गर्व की बात समझा जाने लगा है तो लड़कियों व महिलाओं को नाटक मंचन में भी परिवार से प्रोत्साहन व सहायता मिलने लगी है तो आकलन लगा सकते हैं कि भविष्य में आंचलिक नाटकों को महिला नाट्यशिल्पियों की अल्पता नहीं शनि पड़ेगी।