आलेख : भीष्म कुकरेती
गढ़वाल -कुमाऊं में देवपूजन के हिसाब से शिव, कृष्ण व क्षेत्रीय देव देवियाँ या वीर मुख्य अराध्य हैं। राम को आराध्य माना जाता रहा है किन्तु गौण देव के रूप में। मुझे अभी तक गढ़वाली -कुमाउनी भाषा में कोई राम संबंधित जागर /लोकगीत /लोकगाथा दिखने को नही मिली। हाँ !
सितौनस्यूं में सीता का भूमि में समा जाने की लोककथा व लक्ष्मण झूले में लक्ष्मण द्वारा तप की कथा अवश्य मिलती है।
यही कारण है कि रामलीला का मंचन गढ़वाल -कुमाऊं में तुलसीदास द्वारा बनारस व लखनऊ में मंचन के कोई चार सौ साल बाद ही रामलीला मंचन के रिकॉर्ड मिलते हैं।
कुमाऊं में 1860 के लगभग रामलीला शुरू हुयी थी तो रिकॉर्ड के हिसाब से पौड़ी शहर में 1900 व लैंसडाउन में 1904 के लगभग रामलीला मंचन शुरू हुआ।
रामलीला मंचन कुमाऊं -गढ़वाल में शिक्षा वृद्धि के साथ लोकप्रिय होता गया।
मुम्बई में गढ़वाल से सन 1917 ya 1920 से आने शुरू हो गए थे तो कुमाऊं से भी इसी समय आगमन शुरू हुआ होगा।
चूँकि 1900 से दोनों क्षेत्रों में रामलीला मंचन का ‘चाख’ (स्वाद ) लगने लगा था तो अवश्य ही इस ‘चाख ‘ का प्रभाव प्रवासियों पर भी पड़ना स्वाभाविक था। सन 1940 तक गढ़वाली -कुमांऊँनियों की अच्छी खासी संख्या मुम्बई में हो गयी थी।
औपचारिक मंचन की दृष्टि से 1956 को गढ़वालियों -कुमांऊँनियों द्वारा एक साथ रामलीला मंचन की शुरुवाती वर्ष माना जाता है किन्तु अनुऔपचारिक मंचन की दृष्टि से गढ़वाली -कुमांऊँनियों द्वारा सन 19 47 के लगभग या उससे भी पहले रामलीला मंचन मुम्बई में शुरू हो चूका था। फोर्ट में चौकीदारी , लिफ्टमैन , चपड़ासी आदि की नौकरी कर रहे प्रवासी उसी क्षेत्र में वास भी करते थे। नव भारतब टाइम्स के 29 सितंबर 2017 अंक में लिखा गया है कि गढ़वाली कुमाऊंनियों ने सन 1925 में फोर्ट में रामलीला प्रारम्भ की. तो नवरात्रि शुरू होते ही ये प्रवासी रात को सड़क किनारे या किसी कार्यालय के परिसर या मैदान में रामलीला खेलते थे। श्री रमण कुकरेती के हिसाब से बिना किसी विशेष ड्रेस या मेकप व औपचारिक मंचन के मौखिक रूप से रामलीला मंचन होता था।
आधिकारिक रूप से 1956 में गढ़वाली -कुमांऊँनियों द्वारा संयुक्त रूप से रामलीला मंचन शिवड़ी में शुरू हुआ था। किन्तु कुछेक साल बाद क्षेत्रीयता भेद के चलते गढ़वालियों ने 1961 या 1962 में आजाद मैदान में रामलीला मंचन शुरू किया। कुमांऊँनियों द्वारा हिमालय पर्वतीय संघ के तले रामलीला मंचन परेल में शुरू हुआ। फिर घाटकोपर में भी मंचन शुरू हुआ। स्व जमुना प्रसाद, मणिराम शर्मा व श्री भट्ट जी का नाम इन रामलीलाओं से जुड़ा मिलता है
कुछ साल बाद गढ़वालियों की एक सशक्त संस्था ने ग्वालियर टैंक में रामलीला मंचन शुरू किया जो शायद 1980 तक मंचन करती थी। मेरे एक सहयोगी स्व सन्तराम मैखुरी इस मंच से लक्ष्मण का चरित्र निभाते थे।
सन 1970 -से 1976 -77 गढ़वाली -कुमाऊंनियो द्वारा रामलीला मंचन का स्वर्ण काल कहा जाता है। एक साल तो मुम्बई में 17 स्थानों में गढ़वाली -कुमाऊँनियों द्वारा रामलीला मंचन हुआ था।
श्री स्व सतीश गुसाईं ने कोलाबा में नेवीनगर में रामलीला मंचन की शुरुवात की थी।
रेलवे परिशर माटुंगा में भी कुछ साल रामलीला मंचन हुआ।
1970 -1976 तक किंग्स सर्कल में भी गढ़वालियों -कुमांऊँनियों द्वारा रामलीला मंचन हुआ।
दो तीन साल तक भांडुप में दो स्थानों में रामलीला मंचन हुआ। एक के प्रबन्धक खाटली -साबली संस्था थी। दुसरी रामलीला के प्रबन्धक युवा संघ संस्था थी।
शांताक्रूज में तो कई सालों तक गढ़वालियों द्वारा रामलीला मंचन हुआ करता था और श्री स्व विशालमणि बड़थ्वाल रावण का चरित्र निभाते थे।
हॉराइज़न होटल के सामने मैदान में गढ़वालियों ने कुछ सालों तक रामलीला मंचन किया गया।
गढ़वालियों द्वारा जोगेश्वरी पूर्व (महाराज भवन ) में व साथ ही जोगेश्वरी पश्चिम में सिंग कम्पाउंड में कुछ सालों तक रामलीला मंचन हुआ। स्व दिनेश भारद्वाज महाराज भवन की रामलीला में रावण चरित्र निभाते थे। सिंग कंपाउंड की रामलीला मंच का तो प्रसिद्ध हिंदी फिल्म ‘जाने भी दो यारो’ में उपयोग भी हुआ था।
कुछ साल जेके ग्राम ठाणे में रामलीला मंचन हुआ करता था और दो तीन साल ठाणे में एक दूसरी संस्था द्वारा भी रामलीला मंचन किया गया।
एक सूत्र बताते है कि उल्हासनगर -कल्याण के प्रवासियों ने भी कल्याण में रामलीला मंचन किया था।
अणुशक्ति नगर (BARC ) में भी एक या दो साल रामलीला मंचन हुआ था ।
सन 1980 के बाद रामलीला मंचन में अचानक ह्रास शुरू हुआ। मैदानों के किराए में तीब्र वृद्धि , प्रवासी युवाओं द्वारा मंचन में हिस्सा न लेना , रिहर्सल का मंहगा होना के अतिरिक्त डांडिया के व्यवसायीकरण से दर्शकों की रूचि में परिवर्तन , टीवी सीरियलों से दर्शकों की रामलीला में रूचि समाप्त होना व रामलीला का भारत में रूचि कम होना आदि कई कारणों से गढ़वाली -कुमाउँनी समाज द्वारा रामलीला मंचन ही बन्द हो गया।
अब गढ़वालियों -कुमांऊँनियों द्वारा मुम्बई में रामलीला मंचन केवल इतिहास के पन्नो में सीमित रह गया है।
(श्री महीधर पोखरियाल , श्री केदार जोशी व श्री रमण कुकरेती के संग वार्तालाप पर आधारित )