साटी यानि धान के कुनके या धान की फसल काट कर मंडाई से पूर्व खेत में लगाया ब्यवस्थित ढेर।
प्रायः धान की फसल काट कर खेत के बीच में चौड़ी जगह देखकर ढेर लगाया जाता है, ये ढेर क्वनके कहलाते है।
क्वनके लगाने से पहले जमीन का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष आंकलन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से करते है,
ऐसी जगह में क्वनके लगाते है जहां पानी ना रुके, और मंडाई करते समय पूरा तिरपाल बिछाने और मंडाई के बाद न्यार-पुआल को डंडे से झाड़ने और फैलाने को भरपूर जगह देखी जाती है।
धान की फसल को काटकर ढेर में इस तरह ब्यवस्थित करते है कि, क्वनके में धान के बीज बिल्कुल बीच में एकत्रित रहे।
ये ढेर (क्वनके) मीथेन गैस (CH4 )उत्सर्जित करते है।
धान की पकी फसलों के खेतों से निकलती गर्मी इस गर्म गैस का अहसास हमें करवाती है।
मीथेन गर्म गैस है जो ढेर के अंदर गर्मी पैदा कर देती है.
और धान के बीजों को परिपक्व करके पुआल से अलग करने में सहायक होती है.
इस प्राकृतिक गर्मी का एक फायदा ये भी है कि भरे खेत में क्वनके को कृन्तक चूहे भी नुकसान नही पहुंचाते, और जंगली जानवर भी बहुत कम नुकसान करते है।
क्वनके से मंडाई करते समय निकलती गर्मी से प्रायः सुबह सबेरे की ठंडक का पता नही चलता और किसान प्रातःकाल ही सूर्योदय से पहले ही मंडाई करके घर आ जाते है।
क्वनके को प्राय: विषम दिनों में, तीन रात,पांच रात, सात रात, होने पर मंडाई योग्य माना जाता है. जो क्वनके की ऊंचाई, चौड़ाई, और पुआल का आकार पर भी निर्भर करता है.
क्वनके को इस प्रकार ब्यवस्थित लगाया जाता है कि मंडाई के समय आसानी से इन्हे क्रमबद्ध निकाला जा सके. एक गठ्ठर निकालने पर किसी भी प्रकार से दूसरा गठ्ठर अव्यवस्थित नहीं होता है।
अंधेरे में भी आप ब्यवस्थित क्वनके से दो-तीन मुठ्ठ का गठ्ठर मंडाई के लिए निकालोगे तो भी दूसरे मुठ्ठ के एक- एक तिनके की क्रमबद्धता नही बिगडती।
बरसों से हमारे लोकविज्ञान में ये परंपरागत तकनीक चली आ रही है,
मंडाई करने के बाद इसके पुआल को डंडे से चोट मारकर झाडा जाता है, इस डंडे को पराळ-झड़ी कहते है यानि पराळ (पुआल) को झाड़ने वाली डंडी।
मंडाई करते समय बीच-बीच में अवांछित पुआल कण, या बुसेला-भूसा (जिसमें बीज ही ना हो) को साथ रखे सूप से तेजी से हिलाकर हवा से पृथक किया जाता है,
‘सेपरेशन पृथक्करण’ की यह तकनीकी ‘विनोविंग’ के जैसे ही है।
क्वनके के अंतिम घेरे के अंतिम गठ्ठर को उठाने से पहले उस जगह को पुआल ‘कोळु’ (पुआल के बचे भाग) से तुरंत ढकाया जाता है।
मान्यता के अनुसार जिस भूमि माता ने अन्न के भंडार भरे, वो भूमि अन्न के कुठार हमेशा यूं ही भरती रहे इसलिए इस जगह को खाली नहीं रखते और धन-धान्य प्रतीक फसल पुआल से ढ़क देते है।
परन्तु लोकविज्ञान के पक्ष को देखे तो, क्वनके के नीचे गर्मी से बहुत जीव अपना जीवन चक्र का महत्वपूर्ण भाग चलाते होंगे, यानि जिन्हे उच्च तापमान की आवश्यकता हो वो इसके आसपास या मिट्टी में रह रहे होंगे अचानक से क्वनके के उठने से उनके जीवन चक्र पर दुष्प्रभाव ना पडे, इस विचारधारा से भी ये परंपरा, हमारे लोक में प्रचलित है।
वास्तव में हमारी लोकपरंपराओं में समृद्ध विज्ञान दर्शन दिखता है।
——-@ अश्विनी गौङ ‘दानकोट’ अध्यापक विज्ञान राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय पालाकुराली, रुद्रप्रयाग