यवन , कुणिंद , शक व कुशाण काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )
Uttarakhand Medical Tourism in Bactrian Greece to Kushan Periods –
उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -21 –
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
शुंग काल से मुद्रा प्रचलन बढ़ गया था। वास्तव में छोटे -बड़े शासक मुद्रा निर्माण अपनी सिक्की व दिखाने हेतु करते थे कि उनका नाम बढ़ता जाय व साथ में सिक्के विनियम के माध्यम भी थे। उत्तराखंड के श्रुघ्न व अल्मोड़ा के कुणिंद राजाओं ( 232 BC -20 AD ) के सिक्के भाभरी क्षेत्र व पहाड़ों में मिलने , शक -पहलवियों (200 BCE -400 ADE ) के सिक्के व मैदानी उत्तराखंड पर अधिकार , कुशाण राजा का अधिकार (घृषमैन, ईरान ) सिद्ध करते हैं कि उत्तराखंड में सिक्कों का निर्यात -आयात व्यापार में प्रचलन शुरू हो गया था। इस काल में पहाड़ी उत्तराखंड इतिहास पर सामग्री उपलब्ध नहीं है तो इतिहासकारों को मैदानी भाग में उपलब्ध सामग्री से ही काम चलाना होता है।
घृषमैन के अनुसार कुशाण वंशी विम ने दक्षिण उत्तराखंड पर अधिकार कर लिया था। कनिंघम के अनुसार उसने हरिद्वार में एक सुदृढ़ किला बनाया था जिसके अवशेष 1867 तक शेष थे। भाभर क्षेत्र में कुशाण कालीन सिक्के मिलने से भी सिद्ध होता है कि दक्षिण उत्तराखंड पर तो कुशाणों का अधिकार था। (पुरी , इण्डिया अंडर कुशाणाज़ ). कनिष्क सबसे अधिक प्रसिद्ध कुशाण शासक सिद्ध हुआ। कुशाणों के शासन (30 -375 AD ) से पता चलता है कि कुषाणों का उद्देश्य राज करने का रहा व लूट कर अपनी पैतृक मातृभूमि का भंडार भरना नहीं रहा था। इसलिए निर्यात व आयात व्यापार में पूर्वकाल से कमी नहीं आयी।
कुछ भागों पर कुणिंद अथवा सबंधियों का राज भी रहा।
कुशाण युग में पर्यटनोगामी व्यापारिक केंद्र
श्रुघ्न , कालसी , बेहट , वीरभद्र , कनखल , ब्रह्मपुर व गोविषाण बड़ी मंडियां थीं व इन मंडियों का मथुरा व पाटलिपुत्र मार्ग से सुगमता से जुड़ने के कारण उत्तराखंड में निर्यात -आयात सुगम था। इसके अतिरिक्त अन्य व्यापारिक केंद्र भी थे (डबराल (उखण्ड का इतिहास -3 , पृ 231 -234 व मुखर्जी , हिस्ट्री ऑफ इंडियन शिपिंग )
निर्यातित वस्तुएं
तिब्बत व उत्तराखंड से शीतकाल में व्यापारी माल लेकर भाभर की उपरोक्त मंडियों में पंहुचते थे और निर्यात की वस्तुएं बेचते थे व उत्तराखंड व तिब्बत की आवश्यकताओं की वस्तुओं खरीदते थे।
निम्न वस्तुओं का निर्यात होता था –
तिब्बत का सुहागा , स्वर्णचूर्ण व विभिन्न रत्न व उप रत्न की सबसे अधिक मांग थी जो ब्रिटिश काल तक बनी रही।
तिब्बत से आयातित लैपिसलजूली , मरगज , स्फटिक , अफीक , संग अजूबा , संगीशत्व , संगसुलैमानी व उत्तराखंड की जिप्सम , सेलखड़ी , अलावस्टर। स्वर्णमक्षिका , अनेक प्रकार के रंगीन पत्थर।
ऊनी व खाल वस्त्र निर्यात
उत्तराखंड के व्यापारी तिब्बत व उत्तराखंड के बहुमूल्य समूर खाल , ऊनी वस्त्र , उन से बनी कई वस्तुएं भाभर प्रदेश ले जाते थे व बेचते थे। रोम व यूनान में इन वस्तुओं को खरीदने हेतु धनिकों में होड़ लगी रहती थी व उत्तराखंड एक ब्रैंड था। भारत में भी इन वस्तुओं की भारी खपत थी (मोतीचंद्र , भारतीय वेशभूषा ) .
साधुओं के आसन , तंत्र -मंत्र प्रयोजन , घर व रथ भागों को ढकने हेतु बाघ , हिरण की खालें निर्यात होतीं थीं (डबराल , उखण्ड के भोटान्तिक पृ 29 )
बनैले पशु अंग व मेडिकल टूरिज्म
सजावट ही नहीं अपितु रंग रोगन , औषधि हेतु कई उत्तराखंडी पशुओं के अंगों की मांग अन्यत्र व पश्चिम देशों में बराबर रही है। तिब्बत व पहाड़ों से बनैले पशुओं की खाल , अंग भष्म , अंग सुक्सा जैसे हड्डियों का चूरा , सींग व सींग चूरा आदि का निर्यात भी खूब था
भोटिया कुत्तों की मांग
भोटिया कुत्तों की मांग बाह्य देशों के व भारत के धनिकों में खूब थी। भोटिया कुत्तों का मालिक होना सम्मान सूचक माध्यम था। उत्तराखंड से इन कुत्तों का भी निर्यात होता था।
उपरोक्त निर्यात साफ़ बतलाता है कि उस समय उत्तराखंडियों को बनैले व घरेलू पशुओं के प्रजनन से लेकर उनके स्वास्थ्य व अंग प्रयोग का पूरा ज्ञान था और वे इस ज्ञान को व्यापारियों द्वारा सदूर अन्य क्षेत्रों में पँहुचाते थे। प्रोडक्ट नॉलेज , प्रोडक्ट निर्माण ज्ञान के बगैर निर्यात नहीं होता है।
मौर्य काल के बाद उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म के स्तम्भ
हिमालयी जड़ी बूटियों के मांग भारत व अन्य देशों में काल से ही रही है।
वैद्य व किरातों की भागीदारी
अत्रिदेव ‘ आयुर्वेद के इतिहास’ (पृ -79 ) में लिखते हैं कि चरक आदि वैद्य हिमालय निवासी किरातों की सहायता लेकर हिमालय की ऊँची श्रेणियों में उपलब्ध जड़ी बूटियों को पहचानते थे व उन्हें प्राप्त करते थे। इसी तरह अन्य जड़ी भी स्थानीय लोग पहचनते थे व उन्हें उपयोग करने तक साधते भी थे।
मौर्य काल से कुषाण काल तक जड़ी बुशन का व्यापार
यूनान व रोम में जटामासी , कुषण बच , मोथा , गुग्गल , कस्तूरी आदि की भारी मांग थी जो उत्तराखंड से भी पूरी होती थी (मुखर्जी , हिस्ट्री ऑफ इण्डिया पृष्ठ 67 )
अत्रिदेव आयुर्वेद के इतिहास (133 ) में लिखते हैं कि गंधमादन के मीठाविष , कालकूट विष , हलाहाल , वत्सनाभ , मेष श्रृंगी , संख्या अदि विषों की भारी मांग थी और सोने से भी अधिक मंहगे थे।
मेडिकल टूरिज्म व औषधि निर्माण की प्रक्रिया
उत्तराखंड से उपरोक्त औषधियां व जड़ी बूटियों के निर्यात साक्ष्य बताते हैं कि उत्तराखंड निवासियों के मध्य जड़ी बूटी पहचानने , उन पौधों का संरक्षण , उन्हें तरीके से उखाड़ने , आवश्यकता पड़ने पर उन जड़ी बूटियों का शोधन, उनका औषधि अवयव परिवर्तन विधि , सुक्सा बनाने की विधि , उनका ग्राहक तक सुरक्षित पंहुचाने (पैकिंग ) का पूरा ज्ञान था। मेडिकल टूरिज्म के हर अंग व भागिदार अपना कार्य बखूबी करता था। जब व्यापार होता है तो निर्माता व ट्रेडर्स को वास्तु ज्ञान /प्रोडक्ट नॉलेज व वस्तु उपभोग सभी ज्ञान होने आवश्यक होते हैं। उपरोक्त साहित्य सिद्ध करते हैं कि उत्तराखंड वासी मेडिकल टूरिज्म सिद्धांत को पूरा अनुसरण करते थे।
चूँकि उत्तराखंड से औषधि निर्यात होता था तो अवश्य ही वैद्यों व ट्रेडर्सों का उत्तराखंड भ्रमण आवश्यक रहा ही होगा ।
देवप्रयाग के तीर्थ यात्री
देव प्रयाग में रघुनाथ मंदिर के सामने शिलालेख है जो डा छाबड़ा (एपिग्राफिया इंडिका vol 33 पृ 133 व 135 ) के अनुसार ये शिलालेख 2 से 5 वीं सदी तक हैं व इनमे यात्रियों के नाम खुदे हैं व डा पार्थ सारथि डबराल इन्हे यात्रियों के नाम नहीं अपितु वंशावली (पल्ल्व वंश ) की मान्यता देते हैं ( देव प्रयाग के ब्राह्मी नाम लेख , गढ़वाल की जीवित विभूतियाँ पृ 236 से 240 ) .
शिलालेख व इन नामों की व्याख्या और व अन्य विश्लेषणों से पता चलता है कि चंडीघाट से देव प्रयाग तक धार्मिक यात्रा बहुप्रचलित हो गयी थी तथापि साहसी यात्री माणा व मानसरोवर की यात्रा भी करते थे।
और जहां यात्रा वहां अपने आप यात्रा मार्ग पर चिकित्सा सुविधाएं भी सुलभ होने लगती हैं जो आंतरिक मेडिकल टूरिज्म को संवारने में उपयोगी सिद्ध होता है।