उत्तराखंड में चिकित्सा पर्यटन इतिहास भाग – १ से ४० तक
भीष्म कुकरेती
मेडिकल टूरिज्म या चिकित्सा पर्यटन भारत में तेजी से बढ़ रहा है। सन 2015 में मेडिकल टूरिज्म कारोबार तीन (3 ) बिलियन डॉलर का था तो सन 2020 में मेडिकल टूरिज्म आठ (8 ) बिलियन डॉलर का अनुमान है। और 2022 में दस (10 ) बिलियन डॉलर भी आंका जा रहा है।
मेडिकल टूरिज्म का सीधा अर्थ है चिकित्सा संबंधी उद्देश्य हेतु अन्य क्षेत्रवासियों द्वारा यात्रा।
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प्राचीन काल से ही उत्तराखंड धार्मिक , रोंच प्रेमी व औषधीय पर्यटकों को आकर्षित करता रहा है। मेडिकल टूरिस्म के चिकित्सा व दवाइयां निर्माण दो मुख्य अंग होते हैं और उत्तराखंड प्राचीन काल में दोनों पर्यटनों में कुशल रहा है। धार्मिक पर्यटन वास्तव में मानसिक शांति चिकित्सा का अंग है किन्तु इसे अब धार्मिक या पंथ पर्यटन के रूप में अधिक लिया जाता है।
उत्तरखंड में चिकित्सा पर्यटन उदाहरण के बारे में हमे चरक संहिता , सुश्रुता संहिता , महाभारत , जातक साहित्य (बौद्ध साहित्य ) कालिदास साहित्य आदि में संकेत मिलते हैं। उत्तराखंड इतिहास अध्ययन से ऐसा लगता है कि चरक या चरक के मुख्य सहायकों ने उत्तराखंड भ्रमण किया था। जड़ी बूटियों के अन्वेषण हेतु भ्रमण भी मेडिकल टूरिज्म का हिस्सा है। महाभारत में लाक्षागृह निर्माण वास्तव में आज का स्पा व्यापार ही है। पांडु का बन में पत्नियों के संग वास करना कुछ नहीं मेडिकल टूरिज्म ही है। वाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण पर शक्ति लगने पर हनुमान का जड़ी बूटी हेतु उत्तराखंड आना मेडिकल टूरिज्म का एक अहम हिस्सा है। सम्राट अशोक व उनके अन्य संभ्रांत कर्मियों हेतु टिमुर आदि निर्यात भी मेडिकल टूरिज्म ही था। अशोक काल में उत्तराखंड से सुरमा आदि दवाइयों का निर्यात भी मेडिकल टूरिज्म का हिस्सा था। ऋषियों जैसे भृगु , कण्व , विश्वामित्र आदि का उत्तराखंड भ्रमण में चिकित्सा भी शामिल था और उस ज्ञान पाने के लिए अन्य ऋषियों व शिष्यों का उत्तराखंड भ्रमण भी मेडकल टूरिज्म ही था। जातक साहित्य , कालिदास साहित्य में भी मेडकल टूरिज्म के संकेत पूरे मिलते हैं।
उत्तराखंड में कुछ ऐसी जड़ी बूटी हैं जो अन्य क्षेत्रों में नहीं मिलती हैं। इन जड़ी बूटियों को खोजने , जड़ी बूटियों को दवा बनाने लायक संरक्षण करवाने हेतु विषेशज्ञों द्वारा उत्तराखंड भ्रमण करना भी मेडिकल टूरिज्म ही है।
उत्तराखंड में योग शिक्षा अथवा योग से उपचार , नरेंद्र नगर जैसे कस्बों में स्पा में ठहरना भी मेडिकल टूरिज्म ही है। पतंजलि उद्यम में कई प्रकार के ट्रेडरों का आना भी मेडिकल टूरिज्म है। हरिद्वार , ऋषिकेश आदि स्थानों में तांत्रिक अनुष्ठान वास्तव में मेडकल टूरिज्म है
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मेडिकल टूरिज्म के प्रोडक्ट्स या सेवाएं
मुख्यतया मेडिकल टूरिज्म में निम्न सेवाएं शामिल होती हैं
रोग पहचान व डाइग्नोसिस
रोग निदान
पुनर्वसन
औषधि निर्माण , कच्चा मॉल निर्माण , व विपणन
आध्यात्मिक या मानसिक चिकित्सा
आनंद जैसे स्पा
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उत्तराखंड में आयुर्वेद-प्राकृकतिक चिकित्सा, आध्यात्मिक चिकित्सा व जड़ी बूटी निर्यात
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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास के असीम अवसर हैं। मेडिकल टूरिज्म विकास से पारम्परिक टूरिज्म व कृषि टूरिज्म को भी बल मिलेगा। वास्तव में पारम्परिक धार्मिक टूरिज्म, कृषि /जंगल और मेडिकल टूरिज्म एक दूसरे के पूरक हैं।
उत्तराखंड में पारम्परिक ऐलोपैथी मेडिकल टूरिज्म नहीं अपितु प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेदिक चिकित्सा व योग चिकत्सा मेडिकल टूरिज्म हेतु लाभदायी सेवायें है।
आयुर्वेद चिकित्सा , प्राकृतिक (नेचरोपैथी ) को उत्तराखंड में नए सिरे से पुनर्व्यवस्थित करने से ही मेडिकल टूरिज्म को बल मिल सकेगा। सरकार ने 2016 में केरल की तर्ज पर मडिकल टूरिज्म विकास हेतु ऋषिकेश को आरोग्य नगर बनाने की योजना शुरू की थीं और आगे तुंगनाथ , जागेश्वर व लोहाघाट आदि स्थानों में आरोग्य केंद्र खोलने की योजनाएं बनायीं थी किन्तु अब इन योजनाओं के बारे में कुछ सुनाई नहीं देता है। शायद इन योजनाओं के फाइलों को दीमक चाट गयीं है या वाइरस लग गया है।
आध्यात्मिक चिकित्सा याने योग व तंत्र -मंत्र अनुष्ठान भी मेडिकल टूरिज्म के मुख्य अंग हैं। दुनिया भर में योग व उत्तराखंड के बारे में एक सकारात्मक छवि है। किन्तु उत्तराखंड निर्माण के पश्चात भी उत्तराखंड योग टूरिज्म को उस मुकाम पर नहीं ला सका जिस मुकाम के लायक उत्तराखंड है। योग टूरिज्म को यदि ऊंचाई देना है तो विपणन में आधार भूत परिवर्तन आवश्यक है। 2017 में भी सरकार ने वेलनेस -रिजुविनेशन टूरिज्म पर प्रोजेक्ट बनाया किन्तु क्या काम हो रहा है यह धरातल पर नहीं दिख रहा है या सूचनाएं नहीं मिल रही हैं।
प्राकृतिक चिकत्सा टूरिज्म भी उत्तराखंड टूरिज्म की काया पलट कर सकती है।
इसी तरह जड़ी बूटी कृषि भी मेडिकल टूरिज्म को नया आयाम दे सकती है। बहुत सी जड़ी बूटी की खेती पारम्परिक खेती से अधिक लाभकारी हैं और बंदरों , सुवरों व मवेशियों द्वारा भी हानि से दूर हैं। इन जड़ी बूटियों की खेती का प्रसार में एक सबसे बड़ी समस्या है कि 90 प्रतिशत भूमि मालिक प्रवासी हैं। इस समस्या का हल ढूँढना बहुत बड़ी चुनौती है किन्तु असंभव तो नहीं है। केरल प्रदेश भी वासियों द्वारा पलायन से जूझ रहा है किन्तु सरकारों ने प्रवासियों को टूरिज्म उद्यम से जोड़ ही लिया है। तो फिर उत्तराखंड में क्यों नहीं प्रवासी जड़ी बूटी कृषि से जुड़ सकते हैं।
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सरकारों द्वारा विचित्र कदम
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उत्तराखंड की वेदना यह है कि जनता कॉंग्रेस या भाजपा में से एक दल को पूर्ण बहुमत के साथ सिंघासन पर बिठाती है किंतु दोनों दलों की सरकारें पहली सरकार के टूरिज्म संबंधी फैसलों , योजनाओं को आगे नहीं बढ़ाती और टूरिज्म उद्यम विकास के निरंतरता को तोड़ देती हैं। किसी किसी योजना के साथ तो भांड जैसा व्यवहार होता है। एक ही योजना को नए नाम दिए जाते हैं कभी वह योजना मोती लाल नेहरू योजना बन जाती है , फिर नई सरकार आने के बाद वह योजना फाइलों में हेगडेवार नाम से प्रचारित की जाती है तो कॉंग्रेस सरकार के आने के बाद उस योजना का नाम बाड्रा योजना हो जाता है और जैसे ही भाजपा की सरकार आती है तो वही योजना दीन दयाल उपाध्याय के नाम से प्रसारित की जाती है। निरन्तरीकरण मेडिकल टूरिज्म विकास की पहली शर्त है किन्तु हमारा नेतृत्व तो टूरिज्म में भी भगवा या हरा रंग पोतता रहता है।
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पत्रकारों व बद्धिजीवियों में मेडिकल टूरिज्म की समझ में विस्तार की आवश्यकता
पत्रकारों की मेडिकल टूरिज्म विकास में बहुत बड़ी भूमिका होती है। किन्तु बहुत से पत्रकार जो समाज को प्रेरित करने में सक्षम हैं वे भी बहुत बार सामयिक पर्यटन को नहीं समझ पाते हैं और पारम्परिक पत्रकारित सिद्धांतों के तहत नव पर्यटन विपणन कीआलोचना कर बैठते हैं। उत्तराखंड के हर पत्रकार , हर बुद्धिजीवी का कर्तव्य है कि वे मेडिकल टूरिज्म विकास में कुछ न कुछ भूमिका अदा करें।
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प्रवासियों द्वारा निवेश व पब्लिक रिलेसन
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प्रवासी मेडिकल टूरिज्म में निवेश कर व पब्लिक रिलेसन का कार्य कर अपनी भागीदारी निभा सकता है।
सरकार नहीं समाज
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मैंने आज तक टूरिज्म विपणन पर शायद 150 अधिक लेख प्रकाशित किये होंगे और निरंतर लिखता रहता हूँ कि टूरिज्म विकास हेतु सरकार से अधिक समाज का टूरिज्म को समझना व सरकार पर सामाजिक दबाब आवश्यक है।
आज आवश्यकता है कि उत्तराखंड का हर वर्ग मेडिकल टूरिज्म के नए तेवर को समझे और तरह तरह से मेडिकल टूरिज्म विकास में योगदान दे।
कोल युग (प्राचीन उत्तराखंड) में मेडिकल टूरिज्म: एक दृष्टि
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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास परिकल्पना -4
Medical Tourism Development in Uttarakhand – 4
(Tourism and Hospitality Marketing Management for Garhwal, Kumaon and Hardwar series–109 )
उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन –भाग 109
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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प्राचीन काल याने पाषाण युग आदि में भी उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म हेतु कुछ रूप में प्रसिद्ध था ही। भारत से कई प्रदेशों से हिम गिरियों में मोक्ष पाने याने मरने, आत्मघात करने आते थे। अंदाज लगाना कठिन नहीं है कि बीमार लोग उत्तराखंड में प्राकृतिक उपचार हेतु आते थे और जो स्वस्थ हो गए हो गए वे यहीं बस जाते थे या अपने प्रदेश वापस बौड़ जाते थे। शेष अपनी जीव हत्या कर मोक्ष प्राप्त कर लेते थे।
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कोल जाति समय में मेडिकल टूरिज्म
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कॉल या डूम (कृपया इस शब्द को आज के संदर्भ छुवाछूत में न लें ) जाति (60 -70 हजार साल पहले से ) का उत्तराखंड के संस्कृति विकसित करने में आर्य जातियों से कहीं हाथ अधिक रहा है । पाषाण संस्कति को उत्तर प्रस्तर उपकरण संस्कृति विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान है।
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कृषि से मेडिकल टूरिज्म – कोल -डूम जाति ने जब केला , जामुन , सेमल की कृषि शुरू की व कुक्क्ट , मोर ,व शहद शुरू किया तो अंदाज लगाया जा सकता है कि इन वस्तुओं को स्वास्थ्य से अवश्य जोड़ा गया था और अन्य क्षेत्र के लोग जिन्हे इनकी जानकारी नहीं थी तो वे उत्तराखंड आये ही होंगे और यही तो मेडिकल टूरिज्म है। माना कि उत्तराखंड की कोल जाति के पास इन स्वास्थ्य वर्धक वस्तुओं का ज्ञान नहीं था और यहां के निवासी इन वस्तुओं के ज्ञान हेतु बाहर गए या बाहर से अन्य लोग इस प्रकार के ज्ञान को लाये तो भी वः मेडिकल टूरिज्म भी कहा जाएगा।
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कोल युग में अंध विश्वास (?) याने मेडिकल टूरिज्म का विकास
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कोल युग में उत्तराखंड में कई अंध विश्वास (मानसिक शांति हेतु कर्मकांड ) प्रचलित हुए जैसे हंत्या -भूत प्रेत पूजा ; दाग -घात लगाने व दूर करने के तातंत्रिक विधियों का विकास भी इसी युग की देन है। इसी तरह पीपल , बड़ , नीम , आम , महुआ , बबूल , भोजपत्र , किनगोड़ा , सरी , रिंगाळ , तुलसी बुग्याळ आदि वृक्षों को स्वास्थ्य से , पावनता , कष्टनिवारण , जादू -टोना , से जोड़ने की बिभिन्न विधिया इसी युग में शुरू हुआ। साफ़ अर्थ है कि इन मानसिक व शारीरिक व्याधि उपचार विधियों के ज्ञान प्राप्ति या ज्ञान बाँटने का काम हुआ होगा याने उत्तराखंड के लोग बाहर गए होंगे व बाहर के लोग उत्तराखंड आये होंगे। इसे ही आज मेडिकल टूरिज्म कहते हैं।
मानसिक व भौतिक चिकिता क्षेत्र में पशु बलि (मानसिक शांति का एकअंग ) व कई पशुओं के अंगों का उपयोग; पेड़ पौधों से चिकित्सा , आग-राख से चिकित्सा ; मिट्टी , जल से चिकित्सा इस युग में फली फूली और इसमें कोई शक नहीं कि कोल -डूम युग में चिकित्सा ज्ञान , चिकत्सा हेतु लोगों का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में आवागमन हुआ होगा। याने कोल -डूम युग में मेडिकल टूरिज्म विकसित हो ही रहा था।
3000 साल पुराने चरक संहिता, सुश्रुता संहिता में 700 से अधिक पेड़ -पौधों का जिक्र है जिसमे कुछ उत्तरखंड में ही पैदा होने वाले पौधों का जिक्र है तो इसका अर्थ है कि पेड़ों से आयुर्वेद चिकित्सा का विकास हजारों साल से चल रहा था। चिकित्सा विकास याने स्वयमेव मेडिकल टूरिज्म का विकास.
पूर्व महाभारत काल में उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म
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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास पारिकल्पना -5
Medical Tourism Development in Uttarakhand – 5
Tourism and Hospitality Marketing Management for Garhwal, Kumaon and Hardwar series–110
उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन –भाग 110
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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पूर्व महाभारत काल में उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म
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महाभारत काल से पहले किरात , द्रविड़ , खस आदि जातियां उत्तराखंड में आ बसीं थीं और उन्होंने अवश्य ही उत्तराखंड में मेडकल टूरिज्म विकसित किया। धार्मिक विश्वास (आत्मबल हेतु , ऑटोसजेसन ) हेतु इन जातियों ने कई देवताओं की कल्पना कर इन्हे पूज्य बना डाला जैसे वेदकाल में आर्य जाति ने भी किया। किरात , द्रविड़ , खस जातियों के देवताओं में अधिकाँश देवता आज भी पूजे जाते हैं जैसे जाख , जाखणी , नाग , नगळी , भटिंड , गुडगुड्यार , विनायक , कुष्मांड , कश्शू , महासू , जयंत , मणिभद्र घंटाकर्ण आदि देवी देवता (डा डबराल , उ. इ . पृष्ठ 210 )। इससे पता चलता है कि समाज में मनोचिकित्सा आम घटनाएं थीं। मनोचिकत्सा भी मेडिकल टूरिज्म का ही हिस्सा होता है।
इतिहास मौन है कि फोड़े या अन्य बीमारी पर कई जड़ी बूटी उपयोग कैसे शुरू हुआ होगा। कोल , किरात खस , द्रविड़ जातियों ने अवश्य ही कई जड़ी बूटियों से दवा प्रयोग शुरू किया होगा और बाद में चरक व अन्य संहिताओं में वे संकलित हुयी होंगी। कुछ दवाइयां संकलित भी नहीं हुयी होंगी किन्तु श्रुति माध्यम से आज तक चल ही रही हैं
पशु -पक्षी अंगों से दवाईयां व ऊर्जा प्राप्ति हेतु भी अन्वेषण , परीक्षण हुए ही होंगे।
पशु -पक्षियों की हड्डियों , सींगों , खुरों , चोंच, दांतों से ना केवल हथियार , औजार बने होने अपितु सर्जरी -छेदन में भी नित नए परीक्षण व अन्वेषण हुए ही होंगे। बनस्पति काँटों का भी मेडिकल में उपयोग होता रहा होगा और स्थान विशेषज्ञ से उस विशेष स्थान में मेडिकल टूरिज्म बढ़ा ही होगा।
द्रविड़ भाषा के कई ग्राम नाम व शरीरांग नामों से अंदाज लगाया जा सकता है प्राचीन द्रविड़ जाति ने शरीर विज्ञान व औसधि विज्ञान में हिमालय में कई परीक्षण किये होंगे व मडिकल टूरिज्म को कई नए आयाम दिए होंगे।
ताम्र युग या महाभारत काल में गढ़वाल -कुमाऊं में ताम्बे की खान मिलने से औषधि विज्ञान में भी क्रान्ति आयी जैसे ताम्बे की भष्म से आयुर्वेद या जड़ी बूटी में उपयोग। ताम्बे की सुई से सर्जरी , छेदन आदि भी मेडकल अन्वेषण ही थे। ताम्बे के बर्तन में पानी रखना आदि ने भी उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म को विकसित ही किया होगा
गंगाजल ने मेडिकल टूरिज्म से धार्मिक टूरिज्म का रूप दिया होगा। अलकनंदा , भगीरथी , व अन्य उत्तराखंडी नदियों की विशेषताओं पर परीक्षण हुए होंगे व उन चिकित्सा विशेषताओं का प्रचार प्रसार में ना जाने कितने साल व काम हुआ होगा। यह सोचने की आवश्यकता नही कि महाभारत काल से पहले गंगा जल का चिकत्सा वा धार्मिक कार्य हेतु विपणन हुआ होगा तभी तो महाभारत में गंगा स्नान का उल्लेख हुआ है।
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लगातार परीक्षण से ही मेडिकल टूरिज्म विकसित होता है
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खस जाति अशोक काल में अशोक हेतु गंगा जल ,मधुर आम्र, नागलता -टिमुर ले जाते थे से पुष्टि होती है कि कॉल , किरात , , शकादि , खस जातियों ने उत्तराखंड की बनस्पतियों व पशुओं पर स्वास्थ्य रक्षा हेतु कई परीक्षण किये होंगे। फिर इन परीक्षणों को प्रयोग किया होगा और फिर इन जड़ी बूटियों के प्रचार व निर्यात हेतु कई तरह के माध्यम अपनाये होंगे।
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मलारी संस्कृति में मेडिकल टूरिज्म
ताम्र युग में मलारी संस्कृति अध्ययन से पता चलता है मृतकों पर कोई वानस्पतिक रस , पेस्ट व भूमि तत्व लागए जाते थे। मलारी लोग सोना , कांस्य पात्र , रंगीन पाषाण , भोज्य सामग्री आयात करते थे और बदले में पशु , ऊन , खालें , तो निर्यात करते ही थे अपितु समूर , कस्तूरी व कई प्रकार की जड़ी बूटियां निर्यात करते थे (अदला बदली ). (डा शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड का इतिहास भाग -२ पृष्ठ 234 )
समूर , कस्तूरी व जड़ी बूटियां निर्यात (अदला बदली ) का साफ़ अर्थ है मेडिकल टूरिज्म। यह मेडिकल टूरिज्म आंतरिक भी हो सकता है और बाह्य टूरिज्म भी।
Copyright @ Bhishma Kukreti 6 /2 //2018
भगीरथ और गंगा नदी द्वारा मेडकल टूरिज्म विकास
उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास पारिकल्पना -6
Medical Tourism Development in Uttarakhand – 6
(Tourism and Hospitality Marketing Management for Garhwal, Kumaon and Hardwar series–111 )
उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन –भाग 111
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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रामायण काल का सबसे प्रथम वर्णन ‘महभारत ‘ में मिलता है और बाद में वाल्मीकि ने ‘रामायण ‘ की रचना की। रामायण में सगर व उसके पुत्र भगीरथ का वर्णन मिलता है। भगीरथ द्वारा गंगा को पृथ्वी पर लाने की कल्पना महाभारत में मिलती है (वनपर्व-107 , 109 अध्याय ) . भगीरथ द्वारा गंगा को पृथ्वी पर लाने से वह नदी भगीरथी याने भगीरथ पुत्री कहलायी जाती है। भगीरथ द्वारा भगीरथी या गंगा को पृथ्वी में लाना व फिर गंगा हेतु रास्ता बनाना दो बातों को सिद्ध करता है। भगीरथ युग में भगीरथी के लिए रास्ता बनाना याने नहर निर्माण की महत्ता को उस समय लोग समझ चुके थे। मजूमदार , पुसालकर आदि जैसे इतिहासकारों ने ने भगीरथ द्वारा भगीरथी लाने का अर्थ गंगा पर नहर खोदने का अर्थ समझाया है। नहर खोदना याने कृषि में क्रांति और कृषि में क्रान्ति याने मेडिकल उद्यम में विकास।
महाभारत में बताया गया है कि भगीरथ ने भगीरथी जल से अपने पुरखों का तर्पण किया। गंगा या उत्तराखंड की नदियों में स्वास्थ्य वर्धक जल होने पर अन्वेषण हुए होंगे जो सैकड़ों साल के मेहनत से ही प्राप्त हुए होंगे। उस काल याने सात आठ हजार साल पहले उत्तराखंड में मेडिकल क्षेत्र में अन्वेषण , अनुभव प्राप्त करना व उन परिणामों को श्रुति माध्यमों से प्रचार -प्रसारित करने जैसी पद्धति परिपक्वा हो चुकी थी। गंगा जल का स्वास्थ्य वर्धक गुण व कई रोग निरोधक गुणों के होने से ही गंगा को कई धार्मिक अनुष्ठानो (जैसे भगीरथ द्वारा पुरखों को गंगाजल से तर्पण देना ) जोड़ना इस बात का परिचालक है कि गंगा पर आरोग्य संबंधी कई अन्वेषण हुए थे। सर्वपर्थम गंगा को मेडिकल बेनिफिट्स से जोड़ा गया होगा और फिर गंगा को धार्मिक अनुष्ठानों से जोड़ा गया होगा। सर्वपर्थम भारतीय नागरिक गंगा में नहाने स्वास्थ्य लाभ हेतु उत्तराखंड आये होंगे तो मेडिकल टूरिज्म भी विकसित भी हुआ होगा।
आज ही नहीं भगीरथ काल में भी गंगा जल एलर्जी (पीत उठना ) , कई त्वचा रोगों के उपचार हेतु उपयोग होता रहा होगा और भारत के लोग उपचार हेतु उत्तराखंड आते रहे होंगे। सम्राट अशोक के समय तो गंगाजल निर्यात होने लगा था। भूतकाल में गंगा जल निर्यात मेडकिल टूरिज्म का एक अभिन्न अंग रहा है।
जब गंगा को भगीरथ प्रयास से धार्मिक अनुष्ठानों से जोड़ा गया होगा तो गंगा धार्मिक पर्यटन का माध्यम भी बन गयी। इसे मेडिकल टूरिज्म में एक वास्तु का दूसरे वस्तु से इंटर कनेक्शन कहा जाता है। याने पर्यटन में केवल एक वस्तु /प्रोडक्ट /उत्पाद से अभीष्ट परिणाम नहीं मिलते अपितु टूरिज्म विकास में कई उत्पादों की आवश्यकता पड़ती है। भारत में सात आठ अन्य नदियों को पुण्य नदी कहा जाता है किन्तु गंगा को सर्वोपरि पुण्य नदी माना गया तो उसके पीछे गंगा का स्वास्थ्य वर्धक या रोग निरोधक गुण का होना है। याने गंगा नदी याने अलकनंदा व भगीरथी ने मेडिकल टूरिज्म को विकसित किया जो बाद में धार्मिक पर्यटन का सबंल बन गया।
गंगा को पावन नदी की छवि (ब्रैंड परसेप्सन ) प्रदान करने में कितने हजार लोगों ने सैकड़ों साल जाने अनजाने काम किया होगा यह अपने आप में मिशाल है और मेडिकल टूरिज्म के विपणनकर्ताओं के लिए एक अभिनव उदाहरण भी है।
शकुंतला काल में उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म
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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन -7
Medical Tourism Development in Uttarakhand – 7
(Tourism and Hospitality Marketing Management for Garhwal, Kumaon and Haridwar series–112 )
उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन –भाग 112
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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दुष्यंत -शकुंतला प्रकरण के बारे में रिकॉर्ड हमें सबसे पहले महाभारत के आदिपर्व में मिलता है। दुष्यंत को इक्ष्वाकु वंश के सगर से दो तीन पीढ़ी बाद का राजा माना जाता है और जिसकी रजधानी आसंदीवत (हस्तिनापुर क्षेत्र ) थी। दुष्यंत के राज में कहा गया है कि किसी को रोग व्याधि नहीं थी (आदि पर्व 68 /6 -10 ) . इससे पता चलता है कि उस काल में रोग , निरोग , व्याधि व चिकित्सा के प्रति लोग संवेदन शील थे। राजा दुष्यंत आखेट हेतु कण्वाश्रम (भाभर से अजमेर -हरिद्वार तक ) आया था।
आश्रम याने चिकित्सा वार्ता केंद्र
शकुंतला -दुष्यंत प्रकरण में उत्तराखंड कण्वाश्रम , विश्वामित्र आश्रम का व्रर्णन है. उस समय आयुर्वेद की पहचान अलग विज्ञान में नहीं होती थी अपितु सभी ज्ञान मिश्रित थे। आश्रमों में कई ज्ञानों -विज्ञानों पर वार्ता व शास्त्रार्थ होते थे। उनमे अवश्य ही रोग चिकित्सा पर भी वार्ताएं व शास्त्रार्थ होते ही होंगे। चिकित्सा पर वार्ता व शास्त्रार्थ का सीधा अर्थ है चिकित्सा के प्रति जागरूकता। आश्रमों में कई अन्य स्थानों से पंडित व ऋषि आते थे। इसका अर्थ भी सीधा है कि मेडिकल विषय पर कॉनफ़्रेंस। मेडिकल कॉन्फ्रेंस से जनता में शरीर , व्यवहार विज्ञान , सामाजिक विज्ञान , चिकित्सा के प्रति संवेदनशीलता विकसित होती है तो वार्ताओं से चिकित्सा (मानसिक , व्यवहार विज्ञान , शरीर शास्त्र आदि ) विज्ञान ज्ञान का आदान प्रदान सिद्धि होती है. उत्तराखंड में आश्रमों के होने का अर्थ है कि चिकित्सा ज्ञान का आदान प्रदान। दुष्यंत या अन्य ऋषि जब उत्तराखंड आये होंगे तो यह निश्चित है कि आगंतुकों हेतु चिकित्सा व्यवस्था व वैद या विशेषज्ञ भी उत्तराखंड में उपलब्ध रहे होंगे। मेडिकल टूरिज्म कैसे रहा होगा इसकी हमें कल्पना करनी होगी।
बलशाली भरत का जन्म व लालन पोषण
महाभारत के आदिपर्व (74 /126, 74 /304 ) व फिर शतपथ ब्राह्मण 13 /5 /4 ; 13 /11 /13 ) में शकुंतला -दुष्यंत पुत्र महा बलशाली भरत का वणर्न मिलता है जिसका जन्म कण्वाश्रम में हुआ और चक्रवर्ती सम्राट बना व भरत के नाम से जम्बूद्वीप का नाम भारत पड़ा। आदि पर्व में उल्लेख है कि दुष्यंत पुत्र शकुंतला के गर्भ में तीन साल तक रहा। और वह जन्म से ही इतना बलशाली था कि उसका शरीर स्वस्थ , सुडौल शरीर गठन परिपक्व मनुष्य जैसे था। तीन साल गर्भ में रहने पर वाद विवाद इतिहासकार व चिकित्सा शास्त्री करते रहेंगे। जहां तक मेडिकल साइंस , सोशल साइंस व मेडिकल टूरिज्म का प्रश्न है -महाभारत का यह प्रकरण कई संदेश देता है। गर्भवस्था में महिला का पालन पोषण अच्छी तरह से होना चाहिए जिससे कि स्वस्थ बच्चे पैदा हों। जिस समाज में स्वस्थ बच्चे पैदा होंगे उस समाज में हर तरह की सम्पनता आती है।
फिर आदि पर्व में ही उल्लेख है कि कण्वाश्रम में ही भरत के लालन पोषण ऐसा हुआ कि बालक सर्वदमन छः वर्ष में ही वह बालक शेर की सवारी कर सकता था. बारह वर्ष की अवस्था में ऋषियों की सहायता से बालक सर्वदमन समस्त शास्त्रों व वेदों का ज्ञाता बन चुका था। मेडिकल टूरिज्म आकांक्षियों व समाज शास्त्रियों हेतु सीधा संदेस है कि बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास हेतु माता- पिता व समाज को पूरा इन्वॉल्व होना आवश्यक है।
भारद्वाज आश्रम
गंगा तट पर गंगाद्वार (आज का हरिद्वार ) में भारद्वाज का आश्रम भी था जिनका पुत्र द्रोण हुआ। महाभारत में द्रोण का जन्म द्रोणी (कलस ) से हुआ कहा गया है ( लगता है तब टेस्ट ट्यूब बेबी की विचारधारा ने जन्म ले लया था ) (आदि पर्व 129 -33 -38 ) . याने उत्तराखंड में इस क्षेत्र में भी चिकित्सा विज्ञान पर वार्ताएं व चिकित्सा ज्ञान का आदान प्रदान हुआ ही होगा। याने चिकित्सा विज्ञान के ज्ञान का आदान प्रदान से आम जनता में भी मडिकल नॉलेज फैला ही हुआ होगा। जनता के मध्य मेडिकल नॉलेज अवश्य ही मेडिकल टूरिज्म को बड़ा बल देता है या उत्प्रेरक का काम देता है।
सम्राट पांडु का गढ़वाल वास और ‘स्पर्म डोनेसन’ (वीर्य दान) का मेडिकल टूरिज्म में महत्व
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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (उत्तराखंड में पर्यटन इतिहास ) -8
Medical Tourism Development in Uttarakhand (History Tourism ) -8 –
(Tourism and Hospitality Marketing Management for Garhwal, Kumaon and Haridwar series–113 )
उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन –भाग 113
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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महाभारत महाकाव्य वास्तव में कौरव -पांडवों के मध्य युद्ध पर केंद्रित महाकाव्य है। शांतुन के पुत्र विचित्रवीर्य की कोई संतान न होने के कारण महर्षि व्यास ने विचित्रवीर्य की दोनों पत्नियों व एक दासी को वीर्य दान ( स्पर्म डोनेसन ) दिया और उन स्त्रियों से जन्मांध धृतराष्ट्र , पांडु रोग ग्रसित पांडु व दासी पुत्र विदुर पैदा हुए (१, २ ) . कालांतर में पांडु को हस्तिनापुर सिंघसन मिला।. एक बार गढ़वाल भाभर (पांडुवालासोत ) में शिकार करते वक्त पाण्डु ने एक हिरणी को मार डाला और श्राप का शिकार हो गया (२ ). पांडु रोग पीड़ित हुआ और पांडु अपनी दोनों पत्नियों को लेकर गढ़वाल भ्रमण पर चल पड़ा।
संभवत: पांडु पांडुवालासोत से नागशत (नागथात ) पर्वत श्रेणी से चैत्ररथ , कालकूट (कालसी ) होते हुए कई हिमालय श्रेणियां पर कर गनधमाधन , बदरी केदार श्रेणियों के पास शतश्रृंग पर्वत (वर्तमान पांडुकेश्वर ) में तपस्या करने लगा याने स्वास्थ्य लाभ करने लगा (3 ) . अपनी मृत्यु के समय पांडु संभवतया मंदाकिनी घाटी में वास कर रहा था जहां आम व पलाश वृक्ष मिलते हैं। महाभारत में पांडु को नागपुरश्रिप व नागपुर सिंह कहा गया है। हो सकता है नागपुर क्षेत्र का नाम पांडु के कारण पड़ा हो
पांडु के स्वास्थ्य में लाभ हुआ किंतु वह स्त्री समागम व पुत्र देने में नाक़ायम ही रहा।
पांडु के बार बार आग्रह से कुंती ने बारी बारी धर्मदेव , वायु व इंद्र से वीर्य दान लिया और युधिष्ठिर , भीम व अर्जुन पुत्रों को जन्म दिया। पांडु की दूसरी पत्नी माद्री ने अश्वनीकुमारों से वीर्य दान प्राप्त किया और नकुल सहदेव को जन्म दिया। (4 )
पांडु व माद्री के स्वर्गारोहण पश्चात पंचों पुत्रों का लालन पोषण कुंती ने किया और पांडु पुत्रों की शिक्षा दीक्षा ऋषियों ने की। जब युधिष्ठिर सोलह वर्ष के हो गए तो कुंती अपने पुत्रों व शतशृंग के ऋषियों को साथ लेकर सत्रहवें दिन हस्तिनापुर पंहुची। (5 )
महाभारत के आदिपर्व के इन अध्याय वाचन व विश्लेषण कि पांडु काल में गढ़वाल मेडिकल टूरिज्म हेतु एक प्रसिद्ध क्षेत्र था तभी तो सम्राट पांडु ने गढ़वाल को चिकित्सा प्रवास हेतु चुना।
आदि पर्व में कुछ वृक्षों का वर्णन है जो औषधि हेतु आज भी प्रयोग में आते हैं। पांडु एक सम्राट था तो वह वहीं गया होगा जहां चिकत्सा व चिकित्स्क उपलब्ध रहे होंगे। इसका सीधा अर्थ है कि पांडु की चिकत्सा व चिकित्सा सलाह हेतु गढ़वाल में चिकत्सा व चिकत्स्क उपलब्ध थे। पांडु काल में गढ़वाल में मेडिकल टूरिज्म विद्यमान था।
कुंती व माद्री ने वीर्य दान लेकर पुत्रों को जन्म दिया। माह्भारत का यह प्रकरण भी सिद्ध करता है कि गढ़वाल , उत्तराखंड में वीर्य दान या स्पर्म डोनेसन हेतु एक सशक्त संस्कृति थी। यदि पांडु पत्नियों ने स्पर्म डोनेसन संस्कृति हेतु पुत्र प्राप्त किये तो अन्य लोगों ने भी वीर्य दान का सहारा लिया ही होगा। वाह्य लोगों द्वारा वीर्य दान से संतति जन्मना कुछ नहीं मेडिकल टूरिज्म ही है।
फिर आदिपर्व स्पर्म डोनेसन तक ही सीमित नहीं रहा अपितु आदि पर्व में पांडु पुत्रों की स्थानीय ऋषियों द्वारा देख रेख, शिक्षा का भी पूरा वर्णन मिलता है. आजकल डबल इनकम ग्रुप के पति -पत्नियों के बच्चों को क्रेश में भर्ती किया जाता है जहां बच्चों का लालन पोषण होता है। पाण्डु काल में गढ़वाल में ऋषियों द्वारा पांडु पुत्रों का लालन पोषण में सहायता देना भी मेडिकल टूरिज्म का ही हिस्सा है। पोषण शब्द ही स्वास्थ्य रक्षा का पर्यायवाची है।
स्पर्म डोनेसन संस्कृति को भारत में संवैधानिक आज्ञा मिली हुयी है। तथापि अभी भी वीर्य दान पर बहस बंद नहीं हुयी कि यह कार्य सही है या गलत।
महाभारत के आदिपर्व में पांडु प्रकरण से सिद्ध होता है कि पांडु काल में गढ़वाल -उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म में समृद्ध क्षेत्र था।
संदर्भ –
1 – आदिपर्व 63 , 95
2 – आदिपर्व 111 /8 -9
3 – आदिपर्व 111 , 112 , 124
4 – आदिपर्व – 122 -123
5 – आदिपर्व 125 , 129
कृपाचार्य , कृपी व द्रोणाचार्य जन्मकथा और उत्तराखंड में संतानोतपत्ति पर्यटन (फर्टिलिटी टूरिज्म )
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Fertility Tourism in Uttarakhand in Mahabharata Era
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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन -9
Medical Tourism Development in Uttarakhand (History Tourism ) -9
(Tourism and Hospitality Marketing Management for Garhwal, Kumaon and Haridwar series–114 )
उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन –भाग 114
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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महाभारत के आदिपर्व के 129 वें अध्याय में गुरु कृपाचार्य , कृपाचार्य भगनी कृपी और गुरु द्रोणाचार्य जन्मकथाओं का उल्लेख है।
एक आश्रम जहाँ कुरु सम्राट शांतनु आखेट हेतु आते थे वहां महर्षि गौतम पुत्र शरद्वान तपस्या करते थे। शरद्वान सरकंडे के साथ पैदा हुए थे और हर समय धनुर्वेद अध्यन , परीक्षण में लग्न रहते थे व भारी तपस्या भी करते थे । देवराज इंद्र ने जलन बस शरद्वान ऋषि की तपस्या भंग हेतु जानपदी नाम की एक देवकन्या को शरद्वान ऋषि के आश्रम में भेजा। जानपदी एक वस्त्र पहनकर ऋषि शरद्वान को रिझाने लगी। देवकन्या देखकर ऋषि शरद्वान अति आकर्षित हुए और उनका वीर्य स्खलन हो गया. मुनि को पता भी नहीं चला और वीर्य सरकंडों पर गिर गया, मुनि शरद्वाज वहां से चले गए। मुनि का वीर्य दो भागों में बंट गया। उस वीर्य से एक पुत्र हुआ और दुसरा पुत्री। इसी समय सम्राट शांतनु उधर आये और दोनों बच्चों को उठाकर अपने महल ले गए। ततपश्चात ये बच्चे गुरु कृपाचार्य व कृपी नाम से प्रशिद्ध हए।
गुरु द्रोणाचार्य की भी तकरीबन इसी तरह की कथा आदिपर्व के इसी अध्याय में है।
गंगाद्वार (हरिद्वार ) में महर्षि भरद्वाज का आश्रम था। एक बार महर्षि भारद्वाज अन्य ऋषियों के साथ किसी कठोर अनुष्ठान हेतु गंगातट पर आये । वहां कामवासना वशीभूत कोई अप्सरा गंगा में पहले से ही स्नान कर रही थी। उस अप्सरा के शरीर को देख भारद्वाज ऋषि आपा खो बैठे और उनका वीर्य स्खलित हो गया। उन्होंने उस वीर्य को यज्ञकलश (द्रोण, डुलण ) में रख दिया। उस कलश के वीर्य से पुत्र हुआ जिसका नाम भारद्वाज ऋषि ने द्रोण रखा। बालक द्रोण ही बाद में कौरव पांडवों के गुरु हुए। इतिहासकार मानते हैं कि द्रोण (कलस या डुलण ) में जन्म लेने के कारण गुरु द्रोणाचार्य का नाम द्रोण नहीं पड़ा अपितु द्रोण घाटी ( पहले सदी से पहले द्रोणी घाटी नाम सिक्कों में मिलते हैं -डबराल उ.इ. भाग 2 , पृष्ठ 308 ) . भारद्वाज ने द्रोण को पाला व अस्त्र शस्त्र शिक्षा मुनि परुशराम से दिलवाई।
दोनों ऋषियों (शरद्वान व भारद्वाज ) का संबंध उत्तराखंड से है। शरद्वान आश्रम शायद सहारनपुर में कहीं था जो जौनसार से निकट था। भारद्वाज की कर्मस्थली तो हरिद्वार , देहरादून व भाभर था ही।
तीनो का जन्म वीर्य स्खलन से हुआ। माना कि महाभारत के समय में टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक व संस्कृति थी तो वह तकनीक कैसे विलुप्त हो गयी ? यदि थी और जैसे सिंध सभ्यता (उत्तराखंड संदर्भ में सहारनपुर व निकट क्षेत्र ) समाप्त हुयी और विभिन्न तकनीक भी सभ्यता समाप्ति के साथ खो गए। पर मैं इस सिद्धांत पर विश्वास नहीं कर पाता हूँ कि माह्भारत में टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक थी।
मेरा अपना अनुमान है कि वीर्य दान संस्कृति के तहत ही कृपाचार्य , कृपी और द्रोणाचार्य का जन्म हुआ। हो सकता है शकुंतला प्रकरण में विश्वामित्र जैसे ही शरद्वाज ऋषि ने अपने बच्चों को छोड़ा हो और मुनि भारद्वाज ने लोकलाज के कारण बच्चा पैदा होने के बाद अप्सरा का त्याग किया हो। वीर्य दान अधिक तार्किक लग रहा है कि उन अप्सराओं/स्त्रियों को इन मुनियों ने वीर्य दान दिया हो। वीर्य दान के साथ अंड दान भी तो फर्टिलिटी का अंग है। हो सकता है कि शरद्वाज व भारद्वाज ऋषियों ने संतान प्राप्ति हेतु उन स्त्रियों से गर्भाशय प्राप्ति हेतु कोई लेन देन किया हो। गर्भाशय दान में स्त्री अन्य पुरुष का बच्चा रखती है।
यदि टेस्ट ट्यूब तकनीक महाभारत काल में विद्यमान थी तो भी यह तय है कि उत्तराखंड में टेस्ट ट्यूब या टिस्यू कल्चर तकनीक विद्यमान था और मेडकल टूरिज्म हेतु एक प्रोडक्ट या सेवा थी।
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उत्तराखंड में फर्टिलिटी टूरिज्म के तंतु
यदि टेस्ट ट्यूब बेबी तकनीक केवल कल्पना है तो यह सिद्ध होता है कि उत्तराखंड में वीर्य दान का प्रसार प्रचार बाहरी क्षेत्रों में था और जैसे पांडवों का जन्म वीर्य दान से हुआ वैसे ही कृपाचार्य , कृपी और द्रोणाचार्य का जन्म वीर्य दान से हुआ। अगर देखें तो जौनसार भाभर या आस पास हिडम्बा से भीम पुत्र घटोत्कच , गंगाद्वार (हरिद्वार ) उलूपी से अर्जुन पुत्र बभ्रुवाहन का जन्म वीर्य दान संस्कृति के तहत ही हुआ। चूँकि इतिहास तो राजाओं का लिखा जाता है सामन्य जनता का नहीं तो यह तय है कि उत्तराखंड में वीर्य दान प्राप्ति हेतु आम लोग भी उत्तराखंड आते थे। और अगर टेस्ट ट्यूब तकनीक थी तो भी पर्यटक इस तकनीक लाभ हेतु उत्तराखंड आते थे।
जो भी सत्य रहा होगा वह इतिहासकारों के जिम्मे छोड़ हम कह सकते हैं कि संतान उत्पति हेतु अन्य क्षेत्रों से लोग उत्तराखंड आते थे और मेडिकल टूरिज्म से लाभ उठाते थे.
फर्टिलिटी टूरिज्म में संतान इच्छुक या तो वीर्य दान देकर किसी अन्य महिला से अपनी संतान चाहता है या कोई महिला अन्य पुरुष से वीर्य दान प्राप्त कर अपनी संतान उत्तपन्न हेतु यात्रा करती है।
यदि महाभारत काल में उत्तराखंड में फर्टिलिटी टूरिज्म आम बात थी तो उसके निम्न कारण रहे होंगे –
1 – हृष्ट -पुष्ट संतान की गारंटी
2 – स्थानीय संस्कृति में फर्टिलिटी दान को सामजिक , सांस्कृतिक व वैधानिक स्वीकृति
3 – फर्टिलिटी /संतानोतपत्ति में सफलता का प्रतिशत अधिक होना
4 – फर्टिलिटी /सन्तानोत्पति में दानदाता व ग्राहक का निरोग होने की गारंटी
5 – लागत – महाभारत काल हो या वर्तमान काल हो हर कार्य की कीमत होती है। फर्टिलिटी टूरिज्म में क्वालिटी अनुसार तुलनात्मक लागत कम होनी चाहिए
6 – माता पिता का संतान पर अधिकार हेतु साफ़ साफ़ नियम – यदि हम शकुंतला जन्म , कृपाचार्य व कृपी जन्म का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि माता -पिताओं ने अपनी संतान ही छोड़ दी थी वहीं द्रोणाचार्य जन्म का विश्लेषण करेंगे तो इसमें माता ने संतान पर अधिकार छोड़ दिया और वह अधिकार पिता ने लिया। शकुंतला को छोड़ कृपाचार्य , कृपी व द्रोण की माताओं की कोई पहचान नहीं मिलती है।
कुंती और माद्री के संदर्भ में संतान का पूरा अधिकार माताओं ने लिया और वीर्यदाता पिताओं ने संतान पर अधिकार छोड़ दिया था। किन्तु सभी पिताओं ने भविष्य में अपने पुत्रों की सहायता की थी जैसे सूर्य व इंद्र ने। और समाज में विदित था कि कौन किस पुरुष का पुत्र है।
7 -उच्च वंश वीर्य प्राप्ति – हिडम्बा व उलूपी द्वारा क्रमश: भीम व अर्जुन से संसर्ग केवल प्रेम हेतु नहीं था अपितु उच्च कुल वीर्य प्राप्ति भी था। तभी तो भीम व अर्जुन ने अपनी संतान छोड़ दी थी। उन संतानों पर अधिकार माताओं का था।
8 -सूचनाओं की गोपनीयता – फर्टिलिटी टूरिज्म में दानदाता/विक्रेता व ग्राहक आपस में सूचना को गुप्त रखने या न रखने का पूरा समझौता करते हैं। महाभारत के उत्तराखंड फर्टिलिटी टूरिज्म संदर्भ में भी सूचना की गोपनीयता हेतु समझौता हुआ दिखता है।
महाभारत काल में उत्तराखंड में उपरोक्त फर्टिलिटी टूरिज्म प्रिंसिपल तकरीबन वर्तमान फर्टिलिटी टूरिज्म विकास सिद्धांतो के निकट ही थे।
Copyright @ Bhishma Kukreti 10 /2 //2018
वारणावत और मेडिकल टुरिज्म में छवि निर्माण का महत्व
उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म इतिहास व विकास विपणन -10
Medical Tourism Development in Uttarakhand (History Tourism ) – 10
(Tourism and Hospitality Marketing Management for Garhwal, Kumaon and Haridwar series–115 )
उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन –भाग 115
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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दो दशक पहले मैंने जब विपणन प्रबंध पर लिखने की ठानी तो सर्वप्रथम महाभारत का ही अध्ययन हाथ में लिया। महाभारत में ब्रैंडिंग व मार्केटिंग /विपणन प्रबंधन के कई आश्चर्यजनक सिद्धांत मिलते हैं।
माह्भारत के आदिपर्व के 142 भाग में वारणावत प्रकरण है जो टूरिज्म ब्रैंडिंग द्वारा छवि निर्माण का अनूठा उदाहरण है।
जब युधिष्ठिर की प्रसिद्धि ऊंचाई पर पंहुचने लगी तो दुयोधन को चिंता होने लगी कि यही हाल रहा तो उसे हस्तिनापुर राज नहीं मिलेगा। दुर्योधन ने पण्डवों की हत्त्या हेतु अपने पिता से बात की और पांडवों को वारणावत भेजने की योजना बनाई। वारणावत की पहचान जौनसार भाभर (देहरादून ,उत्तराखंड ) से की जाती है जहां दुर्योधन के समर्थक राजा थे। पांडव वारणावत तभी जा सकते थे जब उनके मन में वारणावत के प्रति अच्छी ,आकर्षक छवि/ धारणा बनती।
मेरा मानना है कि राजा दुर्योधन बुद्धिमान थे उनकी बुद्धिमता महाभारत , आदि पर्व 142 /1 से 11 से भी पुष्टहोती है। बुद्धिमान राजा दुर्योधन व उसके भाइयों ने धन व समुचित सत्कार द्वारा आमात्यों वपरभावशाली लोगों को अपने वश में किया। वे आमात्य व प्रभावशाली लोग चारों ओर वारणावत की चर्चाकरने लगे कि—” वारणावत एक चित्तार्शक स्थल है , वारणावत नगर बहुत सुंदर नगर है , वारणावत में इस समय भगवान शिव पूजा हेतु एक बड़ा मेला लग रहा है। यह मेला पृथ्वी में सबसे मनोहर मेला है। ”
आमात्य व प्रभावशाली जन यत्र तत्र चर्चा करने लगे कि वारणावत पवित्र नगर तो है , नगर में रत्नों की कोई कमी नहीं है और वारणावत मनुष्य को मोहने वाला स्थल है।
जब चर्चा शीर्ष (peek ) पर पंहुच गयी तो पांडवों के मन में भी वारणावत जाने की प्रबल इच्छा हुयी। चर्चाएं वारणावत के प्रति अच्छी , मनमोहक सकारात्मक धारणा बनाने में सफल हुईं।
कथ्यमाने तथा रम्ये नगरे वारणावते।
गमने पाण्डुपुत्राणां जज्ञे तत्र मतिनृर्प।।
बुद्धिमान दुर्योधन ने जन सम्पर्क या मॉउथ पब्लिसिटी द्वारा पांडवों के मन , बुद्धि व अहम् (चित्त ) में सकारात्मक वारणावत की छवि(Brand Image ) बनाई और विपणन शास्त्र(मार्केटिंग साइंस ) में यह उदाहरण सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों में से एक उदाहरण है। पांडवों के चित्त (मन , बुद्धि व अहम् ) में वारणावत एक सर्वश्रेष्ठ पर्यटक स्थल है की छवि/धारणा दुर्योधन ने राजाज्ञा (विज्ञापन ) द्वारा न बनाकर अपितु मुंहजवानी /माउथ पब्लिसिटी द्वारा निर्मित हुयी ।
उत्तराखंड टूरिज्म ब्रैंडिंग इतिहास दृष्टि से भी यह अध्याय महत्वपूर्ण है। इस अध्याय से साफ़ जाहिर है कि वारणावत की पब्लिसिटी/बाइंडिंग हस्तिनापुर राजधानी में हुआ। राजधानी में किसी टूरिस्ट प्लेस की ब्रैंडिंग का अर्थ है टूरिस्ट प्लेस का प्रीमियम ब्रैंड में गिनती होना। राजधानी में छवि निर्माण धीरे धीरे छोटे शहरों में गया होगा और उत्तराखंड टूरिज्म को लाभ पंहुचा होगा।
बुद्धिमान राजा दुर्योधन ने पर्यटक स्थल वारणावत छवि निर्माण में निम्न सिद्धांतो का प्रयोग किया –
माउथ पब्लिसिटी से विश्वास जगता है
राजाज्ञा या विज्ञापन से जरूरी नहीं है कि ग्राहक के मन में विश्वास जगे किन्तु वर्ड -ऑफ़ -मार्केटिंग से ग्राहक के मन , बुद्धि व अहम् (चित्त ) में सकारात्मक विश्वास या सकारात्मक धारणा बनती है ही है।
माउथ पब्लिसिटी से चर्चा निरंतर चलती ही रहती है। माउथ पब्लिसिटी प्रभावशाली व ग्राहक सरलता से ब्रैंड को स्वीकारते हैं।
वर्ड ऑफ मार्केटिंग शीघ्र ही शुरुवात हो जाती है।
माउथ पब्लिसिटी सस्ती होती है।
इस अध्याय से जाहिर होता है हस्तिनापुर (हरियाणा व आस पास ) में उत्तराखंड पर्यटन के प्रति सकारात्मक भाव था।
Copyright @ Bhishma Kukreti 11 /2 //2018
पांडवो के गढ़वाली पुरोहित धौम्य और आज के पंडे व बद्रीनाथ -केदारनाथ के धर्माधिकारी
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(महाभारत काल में उत्तराखंड में मेडकल टूरिज्म )
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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -11
Medical Tourism Development in Uttarakhand (Medical Tourism History ) – 11
(Tourism and Hospitality Marketing Management in Garhwal, Kumaon and Haridwar series–116 )
उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन –भाग 116
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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महाभारत में जतुगृह पर्व में पांडवों द्वारा दुर्योधन नियोजित लाक्षागृह में ठहरना , वारणावत में शिव पूजन मेले का आनंद लेना व लाक्षागृह के जलने व पांडवों का बच निकलने का उल्लेख है। यहां से पांडव कुंती सहित उत्तराखंड के वनों में छुप गए व विचरण करते रहे। हिडम्बवध पर्व में पांडव दक्षिण पश्चिम उत्तराखंड के जंगलों में गमन करते रहे। यहां भीम द्वारा हिडम्ब का वध करना , हिडम्बा के आग्रह पर भीम द्वारा हिडम्बा से विवाह करना प्रकरण है और फिर मत्स्य , त्रिगत , पंचाल , कीचक जनपदों से होते हुए एकाचक्र नगरी (वर्तमान चकरौता ) पंहुचने की कथा है। बकवध पर्व में एकचक्र नगरी में भीम द्वारा बकासुर वध का वर्णन है।
चैत्र रथ पर्व में पांडवों का एकचक्र में ब्राह्मणों द्वारा पांडवों को विभिन्न नीतियों का वर्णन है। द्रौपदी स्वयंबर की सूचना मिलने पर पांडवों का द्रौपदी स्वयंबर में भाग लेने का संकल्प की कथा भी इसी पर्व में है।
राजघराना परिवार का एकचक्र में ठहरना याने चिकित्सा व्यवस्था होना
पांडव राजघराने के सदस्य थे। वे आदतन वहीं ठहरे होंगे जहां मेडिकल फैसिलिटी रही होंगीं। जैसे आज के अमीर व सभ्रांत उत्तराखंड में यात्रा करते एमी वहीं ठहरते हैं जहां चिकत्सा सुविधा भी उपलब्ध हो। बहुत काल तक पांडवों का एकचक्र में ठहरने का साफ़ अर्थ है तब चकरोता में मेडिकल फैसिलिटी थीं।
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पांडवो के गढ़वाली पुरोहित धौम्य और आज के पंडे व बद्रीनाथ -केदारनाथ के धर्माधिकारी
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चैत्ररथ पर्व में 182 /1 -12 ) में ऋषि देवल के भाई धौम्य ऋषि को पांडवों द्वारा पुरोहित बनाने की कथा है। पांडवों का द्रौपदी स्वयंबर यात्रा से पहले पांडवों को पुरोहित की आवश्यकता पड़ी। स्थानीय राजा गंधर्वराज की सूचना पर पांडव ऋषि धौम्य के आश्रम उत्कोचक तीर्थ क्षेत्र में धौम्य आश्रम पंहुचे और गढ़वाली पुरोहित ऋषि धौम्य को पुरोहित बनाया। आगे जाकर धौम्य ने पांडव -द्रौपदी विवाह , इंद्रप्रस्थ में यज्ञ में पुरोहिती ही नहीं निभायी अपितु जब पांडवों के 13 साल वनवास में भी साथ निभाया।
धौम्य आश्रम का सीधा अर्थ है जहां ज्ञान (मनोविज्ञान ) , विज्ञान (आध्यात्मिक ज्ञान ) व अज्ञान ( भौतिक ज्ञान जैसे शरीर ज्ञान , सामाजिक ज्ञान , राजनीति ज्ञान समाज शास्त्र आदि ) की शिक्षा दी जाती हो। एकचक्र (चकरौता )के पास आश्रमों के होने से हम स्पष्टतः अनुमान लगा सकते हैं कि तब गढ़वाल में चिकित्सा शास्त्र के शिक्षण शास्त्र के संस्थान भी थे। आज के संदर्भ में देखें तो कह सकते हैं कि चिकित्सा शास्त्र शालाओं के होने से स्वतः ही पर्यटक आकर्षित होते हैं।
गढ़वाली पुरोहित धौम्य द्वारा पांडवों का पुरोहित बनने का अर्थ है कि उत्तराखंड पर्यटन , उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म को एक प्रबल जनसम्पर्क आधार मिलना। ऋषि धौम्य पांडवों के आजीवन पूजहित रहे। गढवाली पुरोहित ऋषि धौम्य का पांडवों का आजीवन पुरोहित बनने का अर्थ है कि उत्तराखंड टूरिज्म का हस्तिनापुर ही नही अन्य क्षेत्रों में भी मुंह जवानी (वर्ड टु माउथ) प्रचार हुआ होगा। प्रीमियम ग्राहकों का पुरोहित बनने का सीधा अर्थ प्रीमियम ग्राहकों के मध्य सकारात्मक छवि /धारणा बनना है।
किसी भी पर्यटक क्षेत्र को हर समय ब्रैंड ऐम्बेस्डर की आवश्यकता पड़ती है। पांडव काल में गढ़वाली पुरोहित ऋषि धौम्य उत्तराखंड टूरिज्म के ब्रैंड ऐम्बेस्डरों में से एक प्रभावशली राजदूत थे।
वर्तमान संदर्भ में देखें तो आज भी चार धामों के धर्माधिकारी , फिक्वाळ ( दक्षिण गढ़वाल में गंगोत्री -यमनोत्री के पंडों को कहा जाता है ) , पंडे व अन्य पुरोहित उत्तराखंड टूरिज्म (मेडिकल सह ) के आवश्यक अंग हैं और जनसम्पर्क हेतु आवश्यक कड़ी हैं। मैं अपने सेल्स लाइन में कई स्थानों जैसे जलगांव महाराष्ट्र , विशाखा पटनम (आंध्र ), चेन्नई , गुजरात , इंदौर में फिक्वाळों से मला हूँ जो पुरहिति करने अपने जजमानों के यहाँ आये थे।
बद्रीनाथ के राजकीय व पारम्परिक मुख्य धर्माधिकारी स्व देवी प्रसाद बहगुणा (पोखरि ) जाड़ों में जजमानों के विशेष अनुष्ठान हेतु भारत के विभिन्न शहरों में जाते थे। बहुगुणा जी तब भी जाते थे जब परिवहन साधन बहुत कम थे। बहगुणा जी के प्रीमियम ग्राहक ही होते थे।
देव प्रयाग के स्व चक्रधर जोशी कई जाने माने व्यापार घरानों के पुरोहित थे व घरानों प्रयाग वेध शाला बनाने में योगदान दिया।
आज बद्रीनाथ के धर्माधिकारी मंडल सदस्य श्री सती जी व उनियाल जी भी अपने जजमानों को मिलने देश के विभिन्न भागों में जाते हैं।
पंडों का तो उत्तराखंड पर्यटन विकास में सर्वाधिक योगदान रहा है। परिहवन साधन बिहीन युग में पंडे वास्तव में पूजा अर्चना के अलावा टूरिस्ट एजेंसी का सम्पूर्ण कार्य संभालते थे। हरिद्वार से धाम तक और फिर धामों से हरिद्वार तक यात्री जजमानों के आवास -निवास (चट्टियों में व्यवस्था ) , भोजन , परिहवन (कंडे , घोड़े , कुली ) व मेडिकल सुविधा आदि का पूरा इंतजाम पंडे याने उनके गुमास्ते ही देखते थे। पंडों द्वारा पर्यटक को भूतकाल में उनके कौन से पुरखे उत्तराखंड आये थी की सूचना देना पर्यटन विकास की प्रतिष्ठा वृद्धि हेतु एक बड़ा जनसम्पर्कीय माध्यम है।
जनसम्पर्क के मामले व अच्छी छवि बनाने में आज भी फिक्वाळ , पंडे , धर्माधिकारी , मंदिरों में विभिन्न पूजा अर्चना करने वाले पुरोहित उत्तराखंड पर्यटन के प्रतिष्ठा प्रचार -प्रसार में महत्ती भुमका निभाते हैं।
ऋषि धौम्य से उत्तराखंड पर्यटन को प्रतिष्ठा लाभ
मेडिकल पर्यटन या अन्य प्रकार के टूरिज्म में प्रतिष्ठा सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अवश्य ही ऋषि धौम्य के पांडव पुरोहित बनने से उत्तराखंड को प्रतिष्ठा लाभ मिला होगा। पांडव काल में ही नहीं आज भी पुरोहित धौम्य महाभारत द्वारा उत्तराखंड को प्रतिष्ठा दिला ही रहे हैं।
ऋषि धौम्य के पांडव पुरोहित बनने से लोगों के मध्य उत्तराखंड के प्रति विश्वास जगा होगा और बढ़ा होगा।
ऋषि धौम्य ऋषि धौम्य के पांडव पुरोहित बनने से उत्तराखंड पर्यटन आकांक्षियों में आसंजस्य की स्थति समाप्त हुयी होगी और उन्होंने उत्तराखंड भ्रमण योजना बनाने में कोई देरी नहीं की होगी।
पांडवों द्वारा कालसी आदि विजय याने विशाल से विशालतम की ओर और लघु से लघुतम की ओर
(महाभारत महाकाव्य में उत्तराखंड पर्यटन )
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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -12
Medical Tourism Development in Uttarakhand (Medical Tourism History ) – 12
(Tourism and Hospitality Marketing Management in Garhwal, Kumaon and Haridwar series–117 )
उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन –भाग 117
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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अर्जुन द्वारा पांचाल में द्रौपदी स्वयंबर में द्रौपदी जीतने व पांडवों की द्रौपदी से विवाह के के बाद पांडव हस्तिनापुर आ गए। विवाह भी गढ़वाली पुरोहित ऋषि धौम्य ने सम्पन किया। द्रौपदी पुत्रों व पांडवों के अन्य पुत्रों के विभिन्न कर्मकांड भी ऋषि धौम्य ने ही सम्पन किये ( आदि पर्व 220 /87 -88 ).
पांडवों के हस्तिनापुर पंहुचने के बाद कौरव -पांडव अंतर्कलह रोकने हेतु राज्य का बंटवारा हुआ और पांडवों को अलग से उजाड़ बिजाड़ प्रदेश दे दिया गया जिसे पांडवों ने सहयोगियों की सहायता से ठीक प्रदेश में परिवर्तित किया व अपनी राजधानी इन्द्रप्रस्थ में स्थापित की। युधिष्ठिर ने इन्द्रप्रस्ठ में अद्भुत सभा का निर्माण किया और राजसुत यज्ञ का आयोजन किया। भीमसेन , अर्जुन , नकुल सहदेव को क्रमश: पूर्व , उत्तर , दक्षिण व पश्चिम दिशा दिग्विजय का भार मिला। (सभापर्व 25 ) .
अर्जुन ने सबसे पहले निकटस्थ राज्य कुलिंद (सहारनपुर व आज के देहरादून का कुछ भाग ) सरलता से जीता व उसके बाद कालकूट (कालसी ) , आलले (तराई ) के जितने के बाद जम्मू , कश्मीर जीतकर आगे प्रस्थान किया।
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पूर्व कुलिंदविषये बशे चक्रे महिपतीन।
धनञ्जयो महाबाहुर्नातितीब्रेण कर्मणा।।
आनर्तान कालकूटन्श्च कुलिंदांश्च विजित्य स : ।
सुमंडल च विजितं कृतवान सह सैनिकम। । (सभापर्व 26 /3 -4 )
ग्लोबलाइजेशन प्रत्येक युग में भिन्न रूप में दृष्टिगोचर होता रहता है। पांडव -कौरव युग में ग्लोबलाइजेशन राजसत्ता के रूप मि मिलता है न कि आज के व्यापार रूप में। पांडवों द्वारा अन्य छोटे बड़े राज्य जीतने का आज के मेडिकल टूरिज्म के संदर्भ में अर्थ है बड़ा ब्रैंड छोटे ब्रैंड को निगलता जाएगा।
सभापर्व के संदर्भ में कालकूट व तराई को अर्जुन ने जीता किंतु उत्तराखंड के गढ़वाल भाग के बारे में महाभारत चुप नहीं है। गढ़वाल राजा सुभाहु पहले ही पांडवों के पक्ष में था तो अर्जुन को गढ़वाल जीतने की आवश्यकता नहीं पड़ी।
मेडिकल टूरिज्म में भी बड़ा ब्रैंड छोटे ब्रैंड को निगलता रहता है। यदि हम निकटम भूतकाल में जाएँ तो पाएंगे कि बाबा कमली वाले धर्मशाला छोटे दुकानदारों याने चट्टी मालिकों को बिना कोई प्रतियोगिता के भी दर्द देते थे। बाबा कमली वाले बड़ा धार्मिक संस्थान था तो वे आयुर्वेदिक दवाईयां भी निर्माण करते थे। कमली वाले की दवाईयां स्वर्गाश्रम व ऋषिकेह में निर्मित होती थीं व धर्म शालाओं में जगह के साथ साथ मुफ्त में देते थे। बड़ा संस्थान था तो उनके पास संसाधन थे तो श्रद्धालुओं को अधिक सेवा उपलब्ध करा पाने में सक्षम थे।
मैक्सवेल या अपोलो हॉस्पिटल्स के सामने छोटे डाक्टरों के नर्सिंग होम कमजोर साबित होंगे ही तो डॉक्टरों को भी एक्सक्लूसिव प्रोडक्ट व स्थान खोज कर व्यापार चलाना ही सही कदम माना जायेगा।
बैद्यनाथ , डाबर और पंतजली संस्थाओं के सामने छोटे आयुर्वेदिक व्यापारिक संस्थान असहाय महसूस करते हैं तो अवश्य ही ये संस्थान या तो बड़ेआयुर्वैदिक संस्थानों को बड़े ब्रैंडों के नाम पर दवाईयां निर्माण कर बड़े ब्रैंडों के सप्लायर बन गए होंगे। या छोटे संस्थान बड़े संस्थानों के डिस्ट्रीब्यूटर बन गए होंगे। यह भी होता है कि छोटे संस्थान उन दवाईयों का निर्माण करने लगते हैं जो बड़े ब्रैंड नहीं बना सकते हैं और एक्सक्लूजिव प्रोडक्ट बनाने से प्रतियोगिता से दूर रह पाते हैं। अमृतधारा ब्रैंड बस एक ही प्रोडक्ट बनाकर बड़ा ब्रैंड बना है। फिर छोटे ब्रैंड कमोडिटी प्रोडक्ट की कीमतें इतना नीचे रखते हैं कि कम प्राइस के बल पर अस्तित्व में रहते हैं।
उत्तराखंड ही नहीं भारत में हर चार पांच गावों के मध्य एक दो पारम्परिक पुरोहित व वैद होते थे जो मेडिकल टूरिज्म के अंग भी थे। ऐलोपैथी के जोर के आगे न चलने से अब ु प्रकार की वैदकी नहीं चलने से पारम्परिक वैदकी संस्कृति समाप्ति की ओर है।
हर व्यापार का नियम है कि विशाल व्यापारी विशालतम की ओर अग्रसर होता जाता है और लघु व्यापारी लघुतम की ओर। लघु को सदा ही वह व्यापार नहीं करना चाहिए जिसमे बड़े व्यापारी मुख्य प्रतियोगी हों अपितु उन प्रोडक्ट को चुनना चाहिए जसिमें बड़े प्रतियोगी न हों।
मेडिकल टूरिज्म में भी उत्तराखंड दिल्ली की नकल करेगा तो उत्तराखंड दिल्ली से प्रतियोगिता न कर पायेगा। अतः उत्तराखंड टूरिज्म को वे प्रोडक्ट व सेवाओं में प्रवेश करना पड़ेगा जो जिन्हें अन्य प्रदेश न अपना सकें।
Copyright @ Bhishma Kukreti 13/2 //2018
महाभारत काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म की अति विशेष छवि
(महाभारत काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )
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उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -13
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Medical Tourism Development in Uttarakhand (Medical Tourism History ) – 13
(Tourism and Hospitality Marketing Management in Garhwal, Kumaon and Haridwar series–118 )
उत्तराखंड में पर्यटन व आतिथ्य विपणन प्रबंधन –भाग 1118
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
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महाभारत महकाव्य अनुसार पण्डवों द्वारा राजसूय यज्ञ निहित सैकड़ों देशों को जीतने के बाद चक्रवर्ती सम्राट युधिष्ठिर ने यज्ञ किया (सभापर्व )
. चक्रवर्ती सम्राट युधिष्ठिर ने यज्ञ में सम्मलित होने कुलिंद नरेश सुमुख (सुबाहु ) खस , जोहरी, दीर्घ वेणिक , प्रदर , कुलिंद आदि जाति के नायकों को भी आमंत्रण दिया था।
सुबाहु ने एक रत्न जड़ित दिव्य शंख दिया था जो अपने आप में अति विशेष था (सभा पर्व 51/ 5से 7 व आगे ) .
राजा दुर्योधन ने धृतराष्ट्र को सूचना दी कि हिमय राजा अथवा उत्तराखंड के खस , जौहरी , कुलिंद , दीर्घ वेणुक , प्रदर , जौहरी , तंगण , परतंगण जातियों के नायकों ने चींटियों द्वारा निकाले स्वर्ण चूर्ण (दूण के दूण थैलों में भर कर ) युधिष्ठिर को भेंट दिए। (सभापर्व 52 /4 -6 )
दुर्योधन ने धृतराष्ट्र को यह भी बताया कि उपरोक्त नायक सुंदर काले चंवर व स्वेत चामर , हिमालयी पुष्पों से उत्तपन स्वादिस्ट मधु भी प्रचुर मात्रा में लाये थे। उत्तर कुरु देश से गंगाजल और कई रत्न लाये थे। दुर्योधन ने अपन पिता को आगे सूचित किया कि उन्होंने उत्तर कैलास से प्राप्त अतीव बल सम्पन औषधि व अन्य पदार्थ भी भेंट के लिए लाये थे
‘ …..
उत्तरादपि कैलासादोषधी: सुममहाबला। … (सभापर्व 52 , 5 -7 )
वास्तव में दुर्योधन ने यह बातें धृतराष्ट्र को ईर्ष्या बस कहीं कि उत्तराखंड के विभिन्न नायकों ने , गंगाजल , मधु , महाबल सम्पन ओषधियाँ आदि वस्तुएं युधिष्ठिर को भेंट में दीं।
हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि दुर्योधन -युधिष्ठिर काल में मैदानों में प्रभावयुक्त माहबली हिमालयी औषधियां दुर्लभ थीं और तभी एक राजा इन औषधियों का वर्णन इतनी तल्लीनता से करता पाया गया है।
सभा पर्व के वर्णन से साफ़ है कि गंगाजल का भी दुर्योधन -युधिष्ठिर काल में बड़ा महत्व था।
हिमालयी वनस्पतियों के फूलों से विशेष शहद की भी मैदानों में विशेष छवि व मांग थी। शहद केवल मीठे के लिए ही उपयुक्त न था अपितु औषधि निर्माण व चिकित्सा उपचार में हिमालयी शहद का बड़ा महत्व था।
दुर्योधन ने हिमालयी औषधियों को एक विशेष नाम दिया है – ‘ कैलासादोषधी: सुममहाबला’ । या तो दुर्योधन ने यह नाम दिया है या उत्तराखंडी औषधियों की ख्याति ‘ कैलासादोषधी: सुममहाबला’ नाम से जन में प्रचलित थी ।
सभापर्व में उत्तराखंड के कुलिंद राजा सुमुख (सुबाहु) द्वारा शंख भेंट व अन्य नायकों द्वारा औषधि समेत अनेक तरह की भेंट आज की परिस्थिति में स्थान छविकरण (प्लेस ब्रैंडिंग ) में प्रासंगिक हैं। सभापर्व के इस प्रकरण से साफ पता चलता है कि उत्तराखंड की औषधि प्रसिद्ध थीं व इनका निर्यात भी होता था। औषधि निर्यात या चिकित्सा निर्यात भी मेडिकल टूरिज्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
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राजनैयिक विशेष उपहार का औचित्य स्थान छविकरण /प्लेस ब्रैंडिंग हेतु आवश्यक है
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प्लेस ब्रैंडिंग में राजनायकों द्वारा दूसरे राजनायकों को अपने स्थान की विशेष उपहार वास्तव में राजनैतिक चातुर्य हेतु ही आवश्यक नहीं है अपितु स्थान छविकरण , स्थान छविवर्धन या प्लेस ब्रैंडिंग के लिए भी अत्त्यावस्यक है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में विभिन्न देशों से सैकड़ों शीर्ष राजनैयिक उपस्थित थे। हिमालयी नायकों द्वारा गंगाजल , शहद व महाबली औषधियों का उपहार देकर उन नायकों ने हिमालयी औषधि अथवा हिमालयी चिकित्सा का समुचित प्रचार प्रसार किया। प्लेस ब्रैंडिंग में भी प्रभावशाली व्यक्तियों को स्थान विशेष वस्तु उपहार प्लेस ब्रिंग हेतु कई प्रकार के लाभ पंहुचाता है। प्रभावशाली को दी गयी भेंट से वर्ड – ऑफ़ -माउथ पब्लिसिटी का लाभ मिलता है।
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उपहार देने में नाटकीयता आवश्यक है
महाभारत के सभापर्व के इस प्रकरण में दुर्योधन द्वारा उत्तराखंडी औषधियों व अन्य उपहारों का इस तरह से वणर्न करता है कि जैसे सभा में उत्तराखंडी नायकों ने उपहार देते समय उच्च सौम्य नाटक किया थे कि दुर्योधन को हर पल का वर्णन धृतराष्ट्र से करना पड़ा। उच्च -सौम्य नाटक प्लेस ब्रैंडिंग के लिए एक वश्य्क अवयव है। उपहार देते समय हाइ ड्रामा किन्तु सफोस्टीकेटेड ड्रामा आवश्यक है।
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पत्रकार अथवा लेखकों को स्थान वस्तु की सूचना व्यवस्था
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महाभारत दुर्योधन या युधिष्ठिर ने नहीं रचा अपितु लेखकों द्वारा रचा गया था। यदि इन रचनाकारों (विभिन्न व्यास जिन्होंने महाभारत की रचना की ) को उत्तराखंड की औषधियों के बारे में सूचना नहीं होती तो वे व्यास उत्तराखंड की औषधियों का वणर्न करते ही नहीं। इसलिए उस समय भी और आज भी स्थान छविकरण’प्लेस ब्रैंडिंग हेतु यह आवश्यक है कि लेखकों , सम्पादकों व पत्रकारों को स्थान की विशेष वस्तुओं की पूरी सूचना का प्रबंध हो।