ब्वानु बौटी जस होंदु,
जसन बंणदु जोग॥
म्यौट जथ्या म्यौटण
या पुगे पुगे भोग॥
यत कुशळ काज कर
या कर तु कैकी सौर॥
हे नर कुछ कर हुनर,
बांध अपड़ी क्यौर॥
धुंणसा – पुंणसी कनु रै,
खण्ड – अजण्ड ख्यनु रै॥
भ्वां भी देखि कतरि बार,
अग्वाड़ि पिछ्वाड़ि ह्येनु रै॥
रीत सौ समाज मा,
म्यो म्यळाख कनु रै॥
मुंड – मुन्यार छ्वोड़ि ना,
बाडि ना तु , नन्नु रै॥
भूखा देखी भूखू रै,
नांगा दगड़ि नांगू रै॥
द्यो धुपांणु छोड़ि मगर,
सब्यूं सारु – फांगू रै॥
हाथ सम रौखि सदा,
बांटु – फांटु द्यौणू रै॥
फारु – रै तु जै ना कैतैं,
कार्य सब्वा ख्यौणू रै॥
हौंस अर उळार बांटि,
कौब स्वौब करदि रै॥
खड़ी – पड्यू ध्यान धौरी’
जीती कबारि हारदि रै॥
सच्चि स्यवा सौंळि दे,
मन मा सबूं मान करि॥
खुद तैं लुकै तैं राखि,
भढ़ – बीरुं बखान करि॥
न्येत ना खराब करि,
दीदि भुल्यूं ना रुवे॥
ल्वे कु रंग बदलि ना,
ब्वे का आंसु ना चुवै॥
बाबै बबूत सैंकि,
पुंगड़ि पटळी यनु रै॥
बूती ड्यौळा – म्यौळा तू,
नयु नाज कनु रै॥
लैणा तैं लड्यौणू रै,
गाज्यों तैं खवौणू रै॥
चिफलपट बंणै गाजी,
गैंडी भी सुजौणु रै॥
सुद्दि सुद्दि फाकि ना,
अति – मति ताचि ना॥
म्येसी पर खाण त्वेन,
खांदि – खांदि नाचि ना॥
ल्वे कु पिंड छौ तु ब्यटा,
भै बैणु तैं जांचि ना॥
लुकारा कैका म्वौर पर,
नकळी पोथि बांचि ना॥
टक्क लगै सूंण बात,
तै अगास जांण त्वेन॥
भला करम कुछ त पुगौ,
दगड़ा मा क्या ल्ह्याण त्वेन॥
:- ललित गुसांई
रुद्रप्रयाग.
नै लिख्वार नै पौध—-कै भी संस्कृति साहित्य की पछांण ह्वोण खाणै छ्वीं तैंकि नै छ्वाळि से पता चलि सकदि। आज हमारी गढ़भाषा तै ना सिरप सुंण्ढा छिन बलकन नै पीढ़ी गीत गुंणमुंडाणी भी च त लिखणी भी च यन मा गढभाषा का वास्ता यन विकास का ढुंग्गू
——संकलन–@ अश्विनी गौड़ दानकोट रूद्रप्रयाग