चरक संहितौ सर्व प्रथम गढ़वळि अनुवाद
खंड – १ सूत्रस्थानम , 28 th अठाईसवाँ अध्याय ( विविधशित पीतीय अध्याय ) पद ५ बिटेन ६ तक
अनुवाद भाग – २५२
गढ़वाळिम सर्वाधिक पढ़े जण वळ लिख्वार- भीष्म कुकरेती
s = आधी अ
!!! म्यार गुरु श्री व बडाश्री स्व बलदेव प्रसाद कुकरेती तैं समर्पित !!!
इन बुलद तब अग्निवेश न भगवान आत्रेय कुण बोलि -हे भगवन संसारम दिखणम आंद कि जु मनिख हितकारी भोजन करदन सि रोगी दिखेंदान त अहितकारी भोजन करण वळ बि रोगी दिखेंदन।
भगवान आत्रेयन अग्निवेश कुण ब्वाल – हे अग्निवेश ! जु हितकारी अन्न खांदन वूं तै ये से रोग नि हूंद अर केवल हितकारी अन्न ही सब रोगों से बचाई सकदन। अहित आहार छोड़ि बि रोगों दुसर प्रकारै प्रकृति हूंद। ऋतू परिवर्तन , प्रज्ञापराध अर परिणाम , शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गंध गंध का मिथ्यायोग , अतियोग, आयोग हूण। यी रोग का कारण आहार रसों क सम्यक उपयोग का उपरान्त बि व्यक्ति म अशुभ लक्षण पैदा कर दींदन। इलै हितकारी भोजन सेवन करंदेर बि रोगी ह्वे जान्दन।
इनि जु अहित भोजन क उप सेवन करदन वूंक जल्दी दोष चिन्ह नि मिल्दन। किलैकि सम्पूर्ण अपथ्य रोगकारी नि हूंदन। सब दोष समान शक्ति वळ बि नि हूंदन। सबि शरीर एकसमान रोग तै सहन नि कर सकदन। इलै अपथ्य देश चौंळ पित्तकारी छन किन्तु आनूप देशक योग से बिंडी अपथ्य कारी ह्वे जांदन। काल (हेमंत म बलवान व शरद म निर्बल ) , वीर्य (संस्कार द्वारा उष्ण करण से पथ्य व शीत करण से अपथ्य ), प्रमाण व मात्रा क अतियोग से अपथ्यतम अर कम करण से निर्बल ह्वे जांदन । इनि भौत सा कारणों मिलणन , विरुद्ध चिकित्सा हूण से गंभीर आशयों म , शरीर क भौत अंतर् प्रवेश से , शरीर म चिरकाल से जड़पकड़ से , शंख आदि क प्राणावयों म स्थित हूण से , मर्म स्थलों तै पीड़ित करण से , भौत दुःख दीणो कारण , शीघ्र विकार उतपन्न करण से , अपथ्य बलवान बण जांद।
इनि भौत म्वाटो , भौत कृश , जौंक मांस , रक्त , हड्डी , ढीला या कमजोर ह्वे गे होवन , जैक शरीर विषम हो , जु असात्म्य भोजन सेवी हों , थोड़ा खाण वळ ह्वावो , अलप सत्व वळ रोग सहन नि कर सकदन। इलै अपथ्य आहार दोष शरीर की विशेषता से रोग मृदु , दारुण , शीघ्र हूण वळ , अन्यथा देर से हूण वळ हूंदन। हे अग्निवेश ! इलै वात , पित्त , कफ विशेष स्थलों म कुपित ह्वेका बनि बनि रोग उत्तपन्न करदन। ५ -६।
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*संवैधानिक चेतावनी : चरक संहिता पौढ़ी थैला छाप वैद्य नि बणिन , अधिकृत वैद्य कु परामर्श अवश्य लीण
संदर्भ: कविराज अत्रिदेवजी गुप्त , भार्गव पुस्तकालय बनारस ,पृष्ठ –३७८ -३७९
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