नकलि ग्हैंणा(फ्रांसीसी कहानी)
मूल:गाय दी मोपांसा
अनुवाद: सुनीता ध्यानी
लैंटिन नौ कु एक आदिम अपड़ु ब्यूरौ सहायकौ घार पार्टी म गा छाइ| वो ही दिन छाइ जब वेकि मुलाकात एक नौनी दगड़ ह्वे अर वो वींका रूप-जाळ म फँसि गे|
प्रांतीय टैक्स कलैक्टरै बेटि छै, भले ही वींक पिता अब यीं दुन्या म नि छाया पर माँ छैं छै अर वो पेरिस ऐ ग्य छा|
माँ कु ही जीबन ह्वा… अड़ोस-पड़ोस म खूब छवीं-बत्त, जाण-पछ्याण लगांदि छै कि अपड़ि बेटि लैक क्वी जवैं ख्वजै साकि|
भौत अमीर बि नि छाया पर इज्जतदार, सीदा-सादा अर सांत छया द्वी माँ-बेटि| सुंदर त खैर बेटि छैं ही छै पर वींकु शुच्चु, निश्छल मन सबसे बड़ि चीज छै इलै लोग वीं कि तारीफ करद नि थकद छाया|
लोग वींथै सबसे भलि पत्नी/गृहणी पर सबरांद छाया कि ब्यो ह्वै कि ईन भली ब्वारि बणण|
लैंटिन भि वे टैम पर इंटीरियर विभाग म क्लर्क छाइ, सामान्य तनखा मिलिदि छै, पर इदगा छा कि व़ो अपड़ि गिरस्ती खैंच सकुदु छौ, वेन अपड़ि तीन हजार फ्रैंक कु हिसाब-किताब बिठै अर वी नौनि थै ब्यो का बाना पूछ दे| वीं नौनि न भि हाँ कैर द्या|
अब त दुयों पर जनु पंख लग गेनि, द्विया एक दुसरा दगड़ खुश छाया, भली गृहणी, घरै जरूरत, पति प्यार, वींथै भलि कै याद रैंद छाइ|
लैंटिन थै जदगा दिन बढ़णा रैंद छा उदगा ही भंडि प्यार अपड़ु पत्नी से हूणु रैंद छाइ|बस द्वी बत्त लैंटिन थै समझ नि आंदि छै-
एक त थियेटर से लगाव अर दुसुरु नकली ग्हैंणों कु शौक| थियेटर में वींक दगड़्यणि पैली शो कि सीट बुक कैर दिंदि छै… दिनभरा आफिस अर फिर पत्नी दगड़ थियेटर!! लैंटिन थै भौत ही खराब लगद छाइ, वो ब्वलुदु भि छाइ कि अपड़ि दगड़्यों दगड़ जैकि वेका आण तक घर ऐ जाय कर, पैलि-पैलि य बात वींन भलि नि मानि, पर बाद म वा पति कि खुशि खण उनि करण बैठ ग्य| थियेटर का दगड़ि नकलि ग्हैणौं कु शौक अर पैर्वाग म फरक साफ दिखेण बैठ ग्य| खुटों बटि मुण्ड म तक वा नकली हीरा, नकलि हार अर कड़ा यूँ सबुन ढकीं, सजीं रैंद छै! पति वींथै औलणु दीणू रैंद छाइ कि तु सुदि नकली ग्हैणा पैनणी रैंदि, उन बि शर्मिलि बाँद ही बिन ग्हैणों कि बि भलि लगंद|मुलमुल हैंसि वा एक ही जवाब देंदि छै कि एक यू ही त मेरु शौक च, मोतियों माळा मा अँगुळि घुमै भौत खुश होंदि वा-“कदगा भलु च ना!! असलि ही हो जनु! “
अब लैंटिन भि हाँ म हाँ मिलांदु कि तेरि पसंद जनि क्वी छै ही नीच|
कदगा ही बार वा अपणा नकली ग्हैणों बक्सा बस अपड़ा आँखों समिणि धैर दिंदि छाइ|
ऊँ ग्हैणों थै कूड़ा समझण वल लैंटिन थै
कदगै दफै वीं का नखरों म वीं का नकलि गुलुबंद पैरण प्वड़द छाइ तब वा खितगणी मारिकि हैंसदि छै|
ह्यूंदै एक असगुनि रात छै वा, जैदिन वा थियेटर गै, खाँसी ह्वे, फेफड़ों म वा खाँसि पट्ट बैठिगे, ठीक आठ दिन म वा सब छोड़िकि यीं दुनिया से ही चलिग्या|
अब लैंटिन कु क्वी सारु नि छौ, बस वीं कि याद, वीं का छ्वीं, वेका आँसु अर सकस्यट कै रूणु रै ग्य बस|
समय दगड़ घौ भ्वरि जंदि पर यख इन कुछ नि ह्वा, दगड़्यों कि छुयों मा, कमरा कि चीजों मा, वींका कपड़ों मा वा सदनि वेका घौ तज्जा रैंदा छाइ|
जैं तनखा म वेकि सरा गिरस्ती चलिदि छै.. वेमा अब वेकि अपड़ि ही जर्वत पूरि नि ह्वे सकदि छै, पैंछू लेंद-लेंद वो कंगाल ही ह्वैग्या| जब कुछू नि बचु वेमा त पैली बटि जौं नकली ग्हैणा वेथै भला नि लगा द छाइ|ऊँथै बेचणा कि बात वेक मन म आइ, उन बि यि गैहणा हि छाया जौंकु कारण से वो अपड़ि पत्नी कि खुद थै जर-जरा बिसरण बैठ जांद छा, अपड़ु अंतिम टैम मा त वा रोज ही नै गैणां लेकि आंदि छै त लैंटिन न हर्बि हर्बि ऊँ ग्हैणों पर ध्यान भि नि द्याइ| एक गुलुबंद छा जै फर वींकु भौत शोर छाइ, ये थै बेचिकि वे थै छ: या सात फ्रैंक/रुप्या मिल सकद छाया, भलु छाइ पर छा त नकली न? वो एक सुनार/ जौहरी दुकान म गाइ, शरम्या-शर्मि वेन वखम पूछि ही द्य कि मि ये गुलुबंद थै बेचण चाणूँ छौं, कदगा फ्रैंक/रुप्या मिल सकदि मिथै?
अब सुनार न देखि-दाखि अपुड़ु दगड़वळा दगड़ कुछ बात करि, अल्टि-पल्टि देखि|
लैंटिन थै यो सब न समझ आणू न पसंद वो ब्वलण ही वल छौ कि “ठिक च मिथै पता च यो गुलुबंद बेकार च|” पर तब तक सुनार न अफि बोलि दे- “ये गुलुबंद कि कीमत त बारह-पंद्रह हजार होलि पर मि ये थै तब तक नि खरीद सकुदु जब तक मिथै इन नि बतैला कि यो आइ कख बटि च तुमम?”
लैंटिन त अजक्यै ग्य, सुदि दैं- बैं देखिकि ब्वनूँ – “तुमथै विश्वास च? कि तुम सही ब्वना छौ?”
त सुनार बि औगु-बौगु ह्वेकि ब्वन बैठ- “ठिक च, कखि हौरि भि पता लगा ल्यो, पर पंद्रह हजार से भंडि त कैन नि दीण, ये से भंड्या क्वी नि द्या त मीम ऐ जैंया|”
लैंटिन वख बटि भैर ऐग्य, हैंसि आणी वे थै -“मूरख वो मूरख! वे थै त असिलि-नकलि कु ही भेद पता नीच|”
अब वो ‘रू द ला पे (शापिंग गली) म गाइ, दुकानौ मालिक झट पछ्याण ग्य, बल यो त यख बटि लियूँ छाइ|
लैंटिन- “कदगा कु होलु यो?”
मालिक (सुनार) -” मिन यो बीस हजार म बेचि छाइ, अब मि ये थै अठारह हजार म वापिस ले सकदु, पर मिथै इन बतावा कि यो तुमम कख बटि ऐइ?”
एक दा फिर लैंटिन खौळे ग्य – “पर एकदौ येकि परख ढंग से त कैर ल्या, मि त ये थै नकलि समझुदु छाइ|”
सुनार- “अच्छा, नाम क्या च तुमरु?”
“लैंटिन! मि ‘मिनिस्टर अॉफ दि इंटीरियर’ म काम करदु, ‘अर 16 डू मार्टर्स’ म रैंदु|’
सुनार न अपड़ि लेखा-बहि देखि त वेमा भि यो गुलुबंद 20 जुलाई 1876 खण ’16 रू ड मास्टर्स’ क पता पर मैडम लैंटिन थै भ्यजै ग्य छै|’
लैंटिन का खौळ्याँ आँखा देखिकि सुनारन वै थै चोर समझि, बल-
“चौबीस घंटा खण ये गुलुबंद मीम छोड़ि द्यो, मि तुमथै रसीद द्यूँलु|”
लैंटिन न चट्ट हाँ बोलि दे|
वेखणै अब भौत घंघतोळ ह्वे गे छै, “वेकि पत्नी म इदगा पैसा कख बटि ऐनि, कैन गिफ्ट भि दे होलु त इदगा मैंगु गिफ्ट किलै?”
वे थै म्वरीं पत्नी पर शक ह्वे, तब त हौरि गैंणा भि इनि ह़ोला, वेका खुटों म जान ही नि रै, धरती भी वेखण अगास ह्वे गे| कनि रिंग ह्वे वैथे, रिंग मा ही भैंया लमिडि गे, लोग उठै कि लिगिन वै थै अर आँखा खुलि त अस्पताल म छा वो| जनि-कनि कैकि घार आइ, पट्ट बंद ह्वे ग्या भितर म, रूंदा-रूंदा सरा रात काट| सुबेर अॉफिस जाण छाइ, पर काम करणो ज्यू नि ब्वनूँ छाइ, आखिर वेन छुट्टी ले दे| सुनार म जाणो ज्यू भि नि ब्वनूँ छाइ पर गुलुबंद भि कनमा छ्वड़ण छा? तैयार ह्वे कि भैर निकल, भलू मौसम, साफ अगास, लोग भग्यान जेबउंद हाथ डाळि निझरख घुमणा छाइ|
ऊँथै देखि लैंटिन स्वचणूँ -“कन भग्यान रैंदि ये सेठ लोग? पैसा जिन हो त कनु-कनु दुख दूर ह्वे जांद, जख घूमि साको,ज्य ज्यू ब्वनूँ खाओ, जख जाणो ज्यू ब्वनूँ जाओ…. एबत मि भि सेठ हूंदु!”
वे थै फिर गुलुबंद अर अठारह हजार फ्रैंक/रुप्या याद ऐगिं|
अब त वो झट वे ‘रू द ला पे’ म पौंछि, स्वाच कि वेम एबत एक पैसा नीच, भूख अलग च, अर अठारह हजार कु गुलुबंद दुकान म बिकणौ तैयार च… झिझक त छैं ही छै पर वो दुकनि भितर चलि ही ग्य, मालिक न बड़ु आदर से वे था बिठाइ, अर बताइ कि मिन सब पूछताछ कैर यालि, तुम ये थै बेचण चाणा छवा त बेच सकदां,मि कीमत दीणौ तैयार छौं|”
“ठिक च जी ठिक!” जीभ अलझैणी छै लैंटिन कि इदगा ब्वलण म भि|
अब वे थै अठारह हजार रुप्या दिए गिं, रसीद पर दस्तखत करये गिं, कौंपदा हथों न लैंटिन न यो काम करि, जरसि हैंसि भि छै उठड़्यूँ म, बल – ” मीम हौरि ग्हैंणा भि छिन, जो इनि अयाँ छन जन यो गुलुबंद ऐ छाइ, त तुम ऊँथे भि खरीद देल्या?”
सुनार न भि चट्ट हाँ बोलि द्य|
एकाध घंटा बाद लैंटिन फिर वीं ही दुकान म छाइ,सबि ग्हैंणों लेकि… बालि- बीस हजार कि, कड़ा- पैंतीस हजार का, अँगुठि-सोलह हजार कि, पन्ना-नीलम कु सेट- चौदह हजार कु, सोनै चेन-चालीस हजार कि|
कुल एक सौ तेतालीस हजार फ्रेैंक|
सुनार भि कम मजक्या नि छाइ बल -“एक ब्यठुलिन अपड़ि सर्या बचत यूँ ग्हैंणों म लगै दे|”
लैंटिन न बोलि- “यो त भौत भलु तरीका च पैसों निवेश करणौं|”
वेदिन लैंटिन न मैंगि शराब पे, ‘वायसिन’ म लंच करि, सब शौक पूरा करिनि अर चौतरिफि छिछगार भरि नजर फेरि|
” मि भि सेठ छौं, दो सौ हजार फ्रैंक कु मालिक|”
वो चिल्लाणू|
अचणचक्क वे थैअपड़ु साबै याद ऐइ… वो किराये गाड़ि म अॉफिस गै अर तड़ि से भितर जैकि ब्वन बैठ बल-” मि इस्तीफा दीणौं अयूँ छौ, मि थै तीन सौ हजारै विरासत मिलीं च|”
वेन अपड़ा दगड़्यों दगड़ हाथ मिलै अर अगनै कि योजना बतै|
फिर वो खाणु खाणौ ‘कैफे एग्नै’ गाइ, एक बड़ु सज्जन आदमि समिण बैठ अर ब्वन बैठ ग्य बल मिथै म्यार भागन चार सौ हजार फ्रैंक विरासत म मिल्याँ छन| वेन जिंदगी म पैलि बार थियेटर कु आनंद लेइ जबकि पत्नी दगड़ मा वेन कभि थियेटर भलु नि मानु, रात भर मनोरंजन काइ, छ: मैना बाद हैंकु ब्यो करि , या वळि पत्नि भौत सगोरबंद अर गरममिजाज छै अर यीं से वो भौत परेशान रै|