( कुणिंद / कुलिंद अवसान काल में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म )
उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -24
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व विक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
कुणिंद /कुलिंद व सबंधी राजाओं का अवसान काल 206 -350 ईश्वी व 400 तक भी ठहराया जाता है (डबराल उत्तराखंड का इतिहास -भाग 3 ) जिसमे वासुदेव , छत्रेश्वर , भानु , रावण अश्वमेध यज्ञ कर्ता -शिव भवानी , पोण वंशज व शील वर्मन हुए। गोविषाण (उधम सिंह नगर इलाका ) में मित्र वंश (50 -250 ईश्वी ) राज्य भी था।
जौनसार भाभर में जयदास व उनके वंशजों का समृद्ध राज 350 -460 तक माना जाता है।
भाभर क्षेत्र में दुर्ग , स्तूप निर्माण
डा डबराल ने उपरोक्त पुस्तक में कई पुरातत्व अन्वेषणों का संदर्भ देते हुए लिखा कि सहारनपुर से उधम सिंह नगर तक इस काल में कई दुर्ग निर्मित हुए। दुर्ग याने सुरक्षा की नई तकनीक उपयोग व प्रयोग. नई तकनीक व दुर्ग निर्माण से साफ़ जाहिर है कि दक्षिण उत्तररखण्ड में पर्यटन उस काल में विकसित स्थिति की और चल रहा था। जब भी दुर्ग जैसा कोई स्थाप्य इमारत बनती है तो वाणिज्य व तकनीक का आदान प्रदान होता है जो बिना पर्यटन उद्यम विकसित हुए संभव नहीं है। इस काल में दक्षिण उत्तरखंड में संगठित (Organized ) पर्यटन के सभी प्रमाण मौजूद मिलते हैं। उधम सिंह नगर में स्तूप निर्माण भी पर्यटन वृद्धिकारक घटक ही है। बौद्ध धर्मियों हेतु उधम सिंह नगर एक पवित्र धर्म स्थल बनने से पर्यटन विकसित ही हुआ।
पांडुवाला (गढ़वाल भाभर -हरिद्वार रोड ) में भी स्तूप निर्माण इसी काल में हुआ। पांडुवाला स्तूप ने भी पर्यटन को ऊंचाई दी। स्तूपों में विद्वानों के आने जाने से कई ज्ञानों का आदान प्रदान से भी पर्यटन को नया मार्ग मिलता है।
भाभर क्षेत्र (सहारनपुर से लेकर उधम सिंह नगर व बिजनौर तक ) में मंदिर निर्माण
कुणिंद / कुलिंद अवसान युग में कई मंदिरों का निर्माण भी हुआ।
गोविषाण में द्रोण सागर निर्माण , कई मंदिरों का निर्माण भी द्रोण सागर के पास वहां हुआ। वहीं दुर्ग में भीम गदा नाम से प्रसिद्ध स्थान में विशाल मंदिर भी निर्मित हुआ। जागेश्वर मंदिर के निकट स्तूप व मंदिर भी निर्मित हुए।
लाखामंडल में कई मंदिर व इस काल में निर्मित हुए। मंदिर बनाने हेतु भी तकनीक ज्ञान के लिए भी कई प्रकार के पर्यटन बढ़े होंगे।
इस काल में मंदिर , मूर्तियां व स्तूप निर्माण ने आंतरिक व वाह्य दोनों प्रकार के टूरिज्म को विकसित किया।
युगशैल राजाओं द्वारा अश्वमेध यज्ञ
जौनसार भाभर -देहरादून में इस काल में युगशैल राजाओं का राज भी रहा (301 -400 ईश्वी ) युगशैल के राजाओं में से शिव भवानी ने एक , शीलवर्मन ने चार अश्वमेध यज्ञ किये। यज्ञ इस बात के द्योतक हैं कि क्षेत्र में व्यापार (निर्यात ) से प्रचुर लाभ हुआ। व्यापार अपने आप में पर्यटन कारी घटक है।
अश्वमेध यज्ञ तो पर्यटन विकास की ही कहानी के प्रमाण हैं। यज्ञ दर्शन व प्रवचन सुनने बाह्य प्रदेशों से गण मान्य व्यक्ति व पंडित आये होंगे तो पर्यटन को नया आयाम ही मिला होगा। अश्वमेध यज्ञ से क्षेत्र को प्रचुर प्रचार मिला ही होगा।
मुद्रा विनियम विकास का काल
कुणिंद अवसान काल की मुद्राएं बेहट , देहरादून , गढ़वाल ( कालाओं के गाँव सुमाड़ी व भैड़ गाँव (डाडामंडी ) में सबसे अधिक मिलीं ), काली गंगा आदि स्थानों में मिली हैं। मुद्राएं ताम्र व रजत मुद्राओं के मिलने व हर काल में मुद्रा निर्माण में विकास झलकता है।
मुद्रा निर्माण से साफ़ प्रमाण मिलता है कि उत्तराखंड में व्यापार विकसित था और आधुनिक विनियम हेतु मुद्राएं आवश्यक हो गयीं थीं। आधुनिक विनियम माध्यम निर्यात व आयत वृद्धि द्योतक होते हैं ।
निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कुणिंद / कुलिंद अवसान काल (206 -350 -400 ) में धार्मिक , व्यापारिक, भवन निर्माण , मुद्रा निर्माण , शिला कोरने , मूर्ति निर्माण आदि घटकों के कारण उत्तराखंड में पर्यटन विशेषतः भाभर क्षेत्र में भूतकाल से अधिक विकसित हुआ।