अब नि रे केका औणे आस
टूटिगी अब मन कु विश्वास।।
सुखिगी अब स्या उम्मीदों कि डाळ
अब नि रैण कैकी जग्वाळ।
अब नि लगदी खुट्यूं मा पराज
अब नि रे मन, केसे नराज़।।
अब चुल्ला मा आग नी भभरांणी
अब नी कैकी जुकड़ी खुदांणी।।
अब नि रे सु रूठणू-मनौणू
अब नि क्वे केतै समझौणू।।
अब नि रे क्वे कैकु खास
झूठ्ठी थे माया झूठ्ठी थे आस।।
बुझिगी अब स्या मन की आग
त्वे पौणौ नि थो भाग।।
भाग-संजोगे ही, बात रे होळि
मनकि बात ना त्वेन, ना मैन बोळि।।
बुझिगी मन कि आस
अब क्या रौण कैका सास—–
सुष्मिता पैन्यूली
भाटगांव, टिहरी गढ़वाल
नै लिख्वार नै पौध—-कै भी संस्कृति साहित्य की पछांण ह्वोण खाणै छ्वीं तैंकि नै छ्वाळि से पता चलि सकदि। आज हमारी गढ़भाषा तै ना सिरप सुंण्ढा छिन बलकन नै पीढ़ी गीत गुंणमुंडाणी भी च त लिखणी भी च यन मा गढभाषा का वास्ता यन विकास का ढुंग्गू
——संकलन–@ अश्विनी गौड़ दानकोट रूद्रप्रयाग