वास्तव में नथ-बुलाक -फूली का सनातन धर्म , बुद्ध धर्म व जैन धर्म या सुहाग चिन्ह से सदियों तक कोई लेना देना नहीं था। बस जैसे ही नथ , बुलाक , फूली का प्रचलन प्रसारित हुआ कर्मकांड में नथ का महत्व डाल दिया गया। सुहाग चिन्ह के अतिरिक्त नथ उतारने जैसे काम क्रीड़ा संबंधी शब्द भी निर्मित हो गया।
इस लेखक ने बहुत पहले सरिता प्रकाशन में पढ़ा था कि नथ अकबर काल में प्रचलित हुयी। फिर इस लेखक को गढ़वाली लोक नाटकों का चरित्र लेखमाला हेतु आभूषणों का गढ़वाल में इतिहास की आवश्यकता पड़ी तो अध्यन से सतत पाया कि हिंदुस्तान की प्राचीनतम सभ्यता सिंधु घाटी की सभ्यता में निम्न पत्थर , सोना धातु आदि के आभूषण प्रचलित थे जैसे –
शीश आभूषण
गले के आभूषण
मिटटी व धातु के कंगन , चूड़ियां , छल्ले किन्तु नासिका के नहीं
कर्णफूल या कर्ण भूषण
कवच आभूषण
सिंधु नदी सभ्यता जो गुजरात , राजस्थान , हरियाणा , पूर्व उत्तराखंड सहारनपुर तक फैली थी के साहित्य में कहीं विवरण व पुरातत्व साक्ष्य नहीं मिला कि इस प्राचीन सभ्यता में नासिका आभूषण का प्रचलन था। (1 , 2 , 3 )उपरोक्त ग्रंथों के अतिरिक्त डा शिव प्रसाद डबराल , रोमिला माथुर , विद्या दत्त महाजन की इतिहास पुस्तकों को बांचने पर भी इस लेखक ने कहीं भी नहीं पाया कि सिंधु घाटी सभ्यता में नासिका आभूषण प्रचलन था।
अतः कहा जासकता है कि वृहद भारतवर्ष में 1500 BC E में नथ , बुलाक- बेसर , फूली का प्रचलन नहीं था।
वेदों में नासिका आभूषण वर्णन नही
वेदों में कर्ण आभूषण , शीश आभूषणों , स्तन आभूषणो , गले के आभूषण , भुजाआभूषण ,पग आभूषणों का उल्लेख हुआ है किन्तु नासिका आभुष्ण वेदकाल में नही पहने जाते थे (4 )
यद्यपि कई इतिहासकारों ने सटापोड़ी (असावधानी बस , चलते चलते ) में लिख भी मारा कि वैदिक काल में नोज रिंग उपयोग होता था ऐसे इतिहासकारों ने कोई उदाहरण नहीं दिए। वास्तव में कोई सोच ही नहीं सकता कि भारत में नासिका आभूषण किसी भी काल में न हो।
मौर्य , बुद्ध , सुंग , कुषाण कालीन अलंकारों में नासिका आभूषण
मौर्य , शुंग , कुषाण काल में निम्न अलंकारों का संदर्भ कई पुस्तकों में मिलते हैं –
कर्णिका
गलबन्द
बाजूबंद
कंगन
मेखला ( कमरबंद गहने )
शीर्ष अलंकार
पाद अलंकार
किन्तु इस लेखक को किसी भी पुस्तक में नासिका आभूषणों काकोई संदर्भ या निर्देशन /इंडिकेशन भी नहीं मिला कि सूत भेद लग सके कि नासिका आभूषण मौर्य , कुषाण , सुंग युग (700 BCE से 300 AD ) में पहने जाते थे । (अलका जी , हेगड़े , माथुर , श्रीवास्तव )
भरत मुनि कृत ‘नाट्य शास्त्र ‘ गुप्त कालीन अलंकारों , आभूषणों , जेवरातों का स्पस्ट चित्रण करता है (500 BCE से 500 CE व सम्पादन गुप्त काल ) , नाट्य शास्त्र के 23 वें अध्याय में पुरुषों व स्त्रियों के अलग अलग ( आवेध्य , बन्धनीय , प्रक्षेय और आरोप्य ) धारण किये जाने वाले आभूषणों का वर्णन है (बाबूलाल शुक्ल शास्त्री, चौखम्भा वाराणसी ) –
नाट्य शास्त्र में स्त्रियों के आभूषणों को निम्न भागों में विभाजित किया गया है –
शिखा पाश , ललाट , गंड बिभूषण , नेत्र -ओष्ठ बिभूषण , दंताभूषण , कंठाभरण , बाहुभूषण , वक्षोविभूषण , अंगुलि विभूषण , कटि विभूषण , गुल्फ विभूषण। नाट्य शास्त्र में नासिका विभूषण , अलंकार का उल्लेख नही मिलता है।
गुप्त कालीन कालिदास साहित्य में भी नासिका आभूषण वर्णन इस लेखक को नहीं मिला।गुप्त कालीन पुरात्वत्वीय माध्यमों व चित्रकलाओं में आभूषण (200 BCE -1000 CE तक )
गुप्त काल को भारतीय इतिहास में स्वर्ण काल कहा जाता है और इतिहासकारों को कई पुरातत्व सामग्री मिलीं है जैसे सिक्के , अजंता एलोरा , एलिफेंटा , जोगेश्वरी गुफाएं आदि। कालिदास साहित्य व पाणनि साहित्य भी गुप्त कालीन युग के साहित्य हैं। अजन्ता गुफाओं में मूर्ति , आभूषणों , गृहलंकारों , उपकरण के विवरण मिलते है किन्तु नासिका आभूषण के सूत भेद नहीं मिलते।
सल्तनत युग ( 1206 -1526 ई ) में नथ का सूत -भेद
सुलतान युग के किसी साहित्य में इस लेखक को पढ़ने नहीं मिला कि सुलतान युग में हिन्दुस्तान में नाक के गहने पहने जाते थे। वास्तव में सुलतान काल ठहराव काल था ही नहीं कि साजो सजावट पर शासकों या शासितों का ध्यान जाता।
नथ का मुगल काल में प्रवेश
पूर्व मुगल कालीन राजपूत पेंटिंग या राजस्थान पेंटिंग्स में कहीं भी नथ का प्रयोग नहीं मिलता है क्योंकि तब हिन्दू धर्म का आध्यात्म पेंटरों का साध्य था। जैसे जैसे राजपूत कलाकारों पर मुगल प्रभाव पड़ता गया व्यक्तिवादी सिद्धांत कलाकारों का उद्देश्य बन गया और श्रृंगार रस व वीर रस की कलाकृति राजपूत कला में मिलने लगा। सत्रहवीं अठारवीं सदी के चित्रों में नायकायियों को नथ पहना। राजपूत पेंटिंग इतिहास भी सिद्ध करता है कि नथ, लौंग , बेसर , फूल , बुलाक हिन्दुस्तान के गहने नहीं थे।
डा नफीसा अली सय्यद (10 ) लिखती हैं –
भारत में बाकी सभी गहने (लंकन , माला , गुलबंद , हार , हँसुली , हंस चम्पाकली जैसे ) महिला व पुरुष एक समान पहनते थे किन्तु नाक के गहने 16 वीं सदी में ही भारत में सामने आया। फूल , बेसर (बुलाक ) लौंग , बालू , फूली और नथ। पी एन ओझा ने भी उल्लेख किया है कि मुगल काल में नासिका आभूषण प्रचलित था.
नथ पथ : :इजरायल से ईरान से भारत
भारत में कर्ण छेदन का प्रचलन सदियों से था किन्तु नासिका छेदन का कहीं सूत भेद नहीं मिलता । नासिका छेदन इजरायल क्षेत्र में क्राइस्ट जन्म से बहुत पहले से ही प्रचलित था। कहा जाता है मध्य पूर्व में नासिका छेदन रिवाज 4000 साल पुराना है , ईसाई धार्मिक ग्रंथ जनेसिस 24 :47 में वर्णन है कि सेवक ने इसाक (अब्राहिम पुत्र ) की भावी पत्नी रुबिका को shanf / नथ भेंट दी। इस कथ्य से साफ़ पता चलता कि नथ या नासिका आभूषण का इजरायल क्षेत्र में बहुत महत्व था व नासिका आभूषण प्राचीन काल से ही प्रचलित रहा है
ऐसा लगता है कि इजरायल -पेलिस्टाइन या मध्य पूर्व से नासिका छिद्रित आभूषण ईरान की ओर प्रचलित हुए। मुगल काल में मुगल बादशाहों की महिलाओं में प्रचलित हुआ।
यद्यपि मुगल बेगमें नासिका आभूषण पहनने लगीं थीं किन्तु नथ आदि को प्रचलित होने में समय लगा। लगभग सत्रहवीं सदी के अंत या अठारवीं सदी के प्रथम भाग में ही नथ व अन्य नासिका आभूषण सामान्य जन में प्रचलित हुए होंगे।
रीतिकालीन काव्य में नथ व नासिका आभूषण
यद्यपि रीति कालीन (सत्रहवीं सदी से अठारवीं सदी तक ) कवियों ने नासिका आभूषणों का प्रयोग शुरू कर लिया था। सम्मेलन पत्रिका 1976 के पृष्ठ में उद्घृत है कि – नथ का वर्णन बिहारी ,मतिराय , देव पद्माकर सभी ने किया है। डा शशि प्रभा प्रसाद डी लिट उदाहरण देती हुयी लिखती हैं कि घना नंद ने राधा की नथ की प्रशंसा की है। बिहारी ने बसेर को उत्कृष्ट बताया है। केशव दास ने नाक में शोभित नक को नकीब बताया व एक स्थान पर लिखा है मुक्ताफल युक्त नासिका की ज्योति से सारा जग ज्योति मय हो रहा है। शशिप्रभा आगे लिखती हैं बल मतिराम की दृष्टि में नकबेसरी की बनक का मूल्य आंका नहीं जा सकता।
यह सर्व विदित है कि फैशन जल्दी प्रचलित नहीं होता था। जिस तरह नथ व अन्य नासिका आभूषणों को प्रचलित होने में बहुत समय लगा उससे अंथाजणा गलत न होगा बल नथ व अन्य नासिका आभूषण कुमाऊं व गढ़वाल में अठारहवीं सदी में ही प्रचलित हुए होंगे। मुगल काल में सारे भारत में गरीब या अमीर दो ही आर्थिक वर्ग थे। चूँकि उस समय पहाड़ों में सामन्य जनता बहुत गरीब थी तो नथ या बुलाक प्रचलन बहुत ही धीरे ही हुआ होगा।
ब्रिटिश काल में ही में नथ बुलाक अधिक प्रचलित हुए होंगे।
वैसे यह आश्चर्य का विषय है कि मुस्लिम संस्कृति का प्रतीक नासिका आभूषण हिन्दू स्त्रियों का सुहाग प्रतीक बन बैठे
नथ नासिका आभूषण सर्व प्रथम मुस्लिम समाज में सुहाग की निशानी बने (जामिला ब्रिज भूषण )
। हाँ अभी तक कैसे नथ , बुलाक सुहाग निशानी बनी का इतिहास पर कार्य होना बाकी है व कैसे कर्मकांडी ब्राह्मणों ने नथ बुलाक को कर्मकांड में स्थान दिया। इस लिख्वार का मत है कि जैसे कर्मकांडी ब्राह्मणों ने नागराजा , गोरिल , नरसिंघ आदि खस जातियों (आदिकालीन देव ) के देव पूजनों को अंगीकार किया या अधिकार किया वैसे ही जब धनी जजमान ने आग्रह किया होगा तो ब्राह्मणों ने उसे सुहाग रूप में प्रस्तुत कर दिया होगा। सर्वपर्थम अवश्य ही धनी जजमान के घर से ही नथ का सुहाग चिन्हांकन शुरू हुआ होगा। धनी वर्ग मुगल बादशाहों का अनुग्रहित था तो धनी वर्ग ने बादशाहों व उनके मंत्री , मुलाजिमों को प्रसन्न करने हेतु नथ बुलाक को प्रश्रय दिया होगा।
साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि नासिका आभूषण नथ -बुलाक -फूली भारत में संभवतया अकबर समय प्रचलित हुए व आठवीं या ततपश्चात ही प्रचलित हुए। संसाधन वृद्धि से ही इन आभूषणों का प्रचलन वृद्धि हुयी।
संदर्भ
1 -जॉन मार्शल , 1931 मोहेन जोदारो ऐंड इंडस सिवलिजेसन अध्याय 26 , परसनल ऑर्नामेंट्स पृष्ठ 509 से 548 , आर्थर प्रोब्स्टाइन , लंदन
2 -मुख्तार अहमद , 2014 , अन्सियन्ट पाकिस्तान ऐंड आर्कियोलॉजिकल हिस्ट्री : हड़प्पन सिवलिजेसन , फोरसम ग्रुप USA , vol III पृष्ठ 437 , Harppa. com ,
3 -मार्गेट प्रोस्सेर ऐलन , 1991 ऑर्नामेंट्स इन इंडियन आर्किटेक्चर , असोसिएटेड प्रेस लन्दनपृष्ठ )
4 -रोशन दलाल , द वेदाज ऐन इंट्रोडक्शन टु हिन्दू सैकर्ड टेक्स्ट
५ – अलका जी रोशन , १९८३ ,इंडियन क्स्टयूम , आर्ट हरिटेज दिल्ली ,
६– हेगड़े राजाराम ,२००२ सुंग आर्ट कल्चरल रिफ्लेक्शन , शरद प्रकाशन , दिल्ली
७ – आशारानी माथुर , अ ज्वेल्ड स्प्लेंडर , द ट्रेडिशन ऑफ़ इंडियन ज्वेलरी रूपा ऐंड कम्पनी , दिल्ली
८- श्रीवास्तव ए , १९८३ , लाइफ इन साँची स्कल्प्चर , अभिनव दिल्ली
९ – बाबू लाल शुक्ल शास्त्री (सम्पादक व व्याख्याकार , श्रीभरतमुनिप्रणीतं नाट्य शास्त्रम (त्रयोविंशोअध्याय ) चौखम्भा संस्कृत संस्थान , पृष्ठ ११५ से १७० , (इस लेख से संबंधित आभूषण संदर्भ वृत्तांत पृष्ठ ११६ से १२८ तक )
10 – डा नफीसा अली सय्यद , 2015 , मुगल ज्वेलरी : अ स्नीक पीक ऑफ ज्वेलरी अंडर मुगल्स , पॉटरीज पब्लिशिंग अध्याय 4 , वेराइटीज ऑफ ज्वेलरी अंडर मुगल्स
११ – पी एन ओझा 1975 , नार्थ इंडियन सोशल लाइफ ड्यूरिंग मुगल पीरियड , ओरियंटल पब्लिशर्स पृष्ठ 37
१२ शशि प्रभा प्रसाद , 2007 रीतिकालीन भारतीय समाज , लोक भारती प्रकाशन पृष्ठ 180 -181
१३ – जामिला ब्रिज भूषण , १९६४ इंडियन ज्वेलरी , ऑर्नामेंट्स ऐंड डेकोरेटिव डिजाइन , डी बी तारापोरवाला पृष्ठ 10