( आयुर्वेद निघण्टु और में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म ) –
उत्तराखंड चिकित्सा पर्यटन व पर्यटन इतिहास 56
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
वैदिक शब्दों अथवा क्लिष्ट शब्द संग्रह को निघण्टु कहते थे। चिकित्सा सबंधी
औषधि संबंधी शब्दकोशों को सामन्य भाषा में अब निघण्टु कहते हैं।
अमरकोश या पाणनि अष्टाध्यायी में भी चिकत्सा शब्द कोष मिलते हैं जिन्हे आयुर्वेद निघण्टु कहते हैं
आयुर्वेद निघण्टु में निम्न विषयों पर चिंतन
मनन होता है
१- बनस्पति का भ्पूगोलिक वितरण
२ -बनस्पति का कोई विशेष गुण
३- बनस्पति का किसी अन्य बनस्पति से या किसी जंतु से समानता
४- बनस्पति के प्रत्येक भाग का उपयोग
५- तौल के मानक
६-बनस्पति में किसी ग्रंथि होने के प्रभाव
७-पत्तों की संख्या व पत्तों के प्रकार
८- फूल की बनावट व विशेषता
९- फलों की विशेषता
९- बीजों के रंग
९- तने का आकार -प्रकार
१०- बनस्पति से बहने वाला दूध या गोंद (latex ) व विशेषता
११- बनस्पति को सूंघने , छूने पर विशिष्ठ प्रभाव या गुण
१२- बनस्पति की विशिष्ठ सुगंध
१३- कांटे
१४- बनस्पति का प्राकृतक वास
ऐतिहासिक महत्व व पूर्व में संहिताओं व निघण्टुओं में वर्णन
१५- औषधि निर्माण व चिकित्सा विधि
आयुर्वेद निघंटु रचनाएँ व औषधि पर्यटन
पांचवीं सदी से आयुर्वेद निघंटु (शब्दकोश ) रचने या संकलित होने शुरू हो गए थे।
अष्टांग निघण्टु (8 वीं सदी ) , पर्याय रत्नमाला (नवीन सदी ) , सिद्धसारा निघण्टु (नवीं सदी ) , हरमेखला निघण्टु (10 वीं सदी ) ,चमत्कार निघण्टु व मदनांदि निघण्टु (10 वीं सदी ) , द्रव्यांगनिकारा ,द्रव्यांगगुण ,धनवंतरी निघण्टु , इंदु निघण्टु , निमि निघण्टु ,अरुण दत्त निघण्टु , शब्द चंद्रिका , ( सभी 11 वीं सदी ); वाष्पचनद्र निघण्टु , अनेकार्थ कोष ( दोनों 12 वीं सदी ) ; शोधला निघण्टु , सादृशा निघण्टु ,प्रकाश निघण्टु , हृदय दीपिका निघण्टु (13 वीं सदी ) ; मदनपाल निघण्टु ,आयुर्वेद महदादि ,राज निघण्टु , गुण संग्रह (सभी 14 वीं सदी ), कैव्यदेव निघण्टु , भावप्रकाश निघण्टु , धनंजय निघण्टु (नेपाल ) ,आयुर्वेद सुखायाम ( सभी 16 वीं सदी के ) आदि संकलित हुए।
आठवीं सदी के माधव कारा रचित ‘रोग विनिश्चय’ में व्याधियों के लक्षण व रोगी के लक्षण व रोग कारकों पर चिंतन हुआ है।
सत्रहवीं सदी में रचित आयुर्वेद निघण्टु
सत्रहवीं सदी में निम्न आयुर्वेदिक निघंटुओं की रचना हुईं –
लोलिम्बराज कृत -वैद्यवातम्सा अथवा वैद्य जीवन
केशव का कल्पद्रिकोष
त्रिमलभट्ट का द्रव्यगुण शतक व द्रव्य दीपिका
सूर्य कृत चूड़ामणि निघण्टु
माधवकारा कृत पर्यायरत्नावली
हरिचरण सेन कृत पर्यायमुक्तावली जो पर्यायरत्नावली का परिमार्जित ग्रंथ लगता है
अठारहवीं उन्नीसवीं सदी में रचे गए निघण्टु (1773 AD )
18 वीं सदी के निघण्टु
महादेव कृत हिकमत प्रकाश
राजबल्लभ कृत राज्बल्ल्भ निघण्टु
रामकारा कृत निघण्टु रामकारा
विष्णु वासुदेव कृत द्रव्य द्याव्य रत्नावली निघण्टु
व्यासकेशवराम कृत लघु निघण्टु
19 वीं सदी में रचे गए निघण्टु
लाला सालिग्राम कृत वनस्पति शास्त्र निघण्टु
जय कृष्ण ठाकुर कृत वनस्पति शास्त्र निघण्टु
ब्रजचंद्र गुप्ता रचित वनौषधि दर्पण निघण्टु
सौकार दाजी पाडे रचित वनौषधि दृश्य निघण्टु
स्थानीय भारतीय षाओं में भी निघण्टु रचे गए हैं जैसे पाली में बुध्यति , तेलगु में बल्ल्भाचार्य रचित वैद्यचिन्तामणि।
इस लेखक ने किसी अन्य उद्देश्य से अनुभव किया कि इन निघण्टुओं में मध्य हिमालय -उत्तराखंड के कई ऐसी वनस्पतियों का वर्णन है जो या तो विशेषरूप से यहीं पैदा होती हैं या मध्य हिमालय में प्रचुर मात्रा में पैदा होती हैं। जैसे भुर्ज, भोजपत्र या पशुपात की औषधि उपयोग कैव्य देव निघण्टु ,भावप्रकाश निघण्टु व राज निघण्टु में उल्लेख हुआ है। भोजपत्र औषधि का वर्णन अष्टांगहृदय (5 वीं सदी ) में उत्तरस्थान अध्याय भी हुआ है।
यद्यपि इस क्षेत्र में खोज की अति आवश्यकता है किन्तु एक तथ्य तो स्पष्ट है कि इतने उथल पुथल के मध्य भी गढ़वाल , कुमाऊं , हिमाचल , नेपाल की औषधि वनपस्पति प्राप्ति , इन वनस्पतियों का औषधि निर्माण हेतु कच्चा माल निर्माण विधि या निर्मित औषधि विधियों के ज्ञान व अन्य अन्वेषण का कार्य व मध्य हिमालय व भारत के अन्य प्रदेशों में औषधि ज्ञान का आदान प्रदान हो ही रहा था। उत्तराखंड से औषधीय वनस्पति , औषधि निर्माण हेतु डिहाइड्रेटेड , प्रिजर्वड कच्चा माल , या निर्मित औषधियों का निर्यात किसी न किसी माध्यम से चल रहा था। उसी तरह आयात भी होता रहा होगा।
औषधि आयत -निर्यात संकेत देता है कि चिकत्सा पर्यटन हुआ या चिकत्सा विकास हुआ अर्थात चिकित्सा पर्यटन के मार्ग विकसित हुए।