संकलन – भीष्म कुकरेती
अबोध बंधु बहुगुणा ने गढ़वाली में चार प्रकर के विशेषणों की व्याख्या की है
१- गुणवाचक –
छाल़ो,
काजोळ,
डर्खु ,
रमाळ,
सेल़ोमंद,
चलमलो,
हौन्सिया,
लमडेर,
सवादी,
चकडैत, आदि
२- परिमाण वाचक –
बिंडी,
बिंडे, उ
थगा,
इथगा
इच्छि ,
इच्छे ,
कति ,
३- संख्या वाचक –
एक बीसी,
दुयेक, दुय्ये ,
चारेक
४- संकेतात्मक –
इ,
उ,
कति
रजनी कुकरेती ने गढ़वाली विशेषणों को पांच भागों में बांटा है
१- सार्वनामिक विशेषण
जो सर्वनाम अपने सार्वनामिक रूप में संज्ञा की विशेषता बताते हैं और रजनी कुकरेती ने उन्हें चार भागों में विभाजित किया है
१ क- निश्चय अथवा संकेतवाचक – वु, या
१ख – अनिश्चय वाचक – कै, कु
१ग – प्रश्न वाचक – क्या, कै
१घ- सम्बन्ध वाचक – जु, सौब
२- गुणवाचक विशेषण
रजनी ने लिखा है कि संज्ञा के गुण दोष रंग, काल, स्थान, गंध, दिशा, अवस्था, आयु, दशा एवम स्पर्ष का बोध कराने वाले शब्द गुण वाचक विशेषण कहलाते हैं जैसे
तातु
पुरणि
चिलखण्या
मलमुलख्या
चिफळण्या
रजनी कुकरेती अपने नोट में लिखती हैं
अ- – जब गुण वाचक विशेषण लुप्त होते हैं तो उनका पर्योग संज्ञा समान होता है
सयाणा ठीकि बुल्दन
ब– गुणवाचक विशेषण के बदले अधिकांस संज्ञाओं व सर्वनामों के साथ कु/कि /का एवम रि/रा प्रस्र्गों के संयोग से बाना रूप प्रयुक्त होता है जैसे
घर्या घी ,
बण्या तैडु
३- संख्या वाचक विशेषण
जो विशेषण संज्ञा व सर्वनाम कि संख्या का बोध कृते हैं उन्हें संख्या वाचक विशेषण कहते हैं
क- निश्चित संख्यात्मक जैसे
छै
चार
ख- अनिश्चित वाचक
हजारु
लक्खु
रजनी ने स्पष्ट भी किया कि संख्याएं सात प्रकार कि होती हैं
अ- गणना वाचक- दस, बीस, पचास
ब- अपूर्ण संख्या वाचक – अधा, त्याई, सवा
स- क्रमवाचक – पैलू, दुसरू
ड़- आवृति वाचक – दुगुणु , तिगुणु
इ- समुदायवाचक – चौकड़ी , तिकड़ी, जोळी (जोड़ी)
ऍफ़. सम्मुचय वाचक – दर्जन, चौक बिस्सी, सैकड़ा
जी- प्रत्येक बोधक – एकेक , द्विद्वी , हरेक,
४- परिमाण वाचक विशेषण
रजनी ने परिमाण वाचक संज्ञाओं को दो भागों में विभाजित किया
४ क- निश्चित परिमाण वाचक विशेषण जैसे
तुरांक,
पथा
खंक्वाळ
४ ख- अनिश्चित परिमाण वाचक विशेषण जैसे
बिंडि
थ्वड़ा
बिजां
भौत
४ग- समासयुक्त परिमाण वाचक विशेषण जैसे
थ्वड़ा-भौत
कम-जादा
४घ- आवृति परिमाण वाचक विशेषण जैसे
भौत- भौत
जरा-जरा
५- विशिष्ठ विशेषण
रजनी कुकरेती ने कुछ विशिष्ठ विशेषणों का भी उल्लेख किया है यथा-
द्वियाद्वी
तिन्या तिन्नी
चर्याचरी
न्यूनता, व आधिक्य बोधक विशेषण
अबोध बंधु बहुगुणा ने यद्यपि अपने बिभाजन मे न्यूनता व आधिक्य बोधक विशेषणों को अलग नही बताया किन्तु लिखा की गढ़वाली मे कई विशेषण गुण की न्यूनता व आधिक्य प्रकट करते हैं . यथा
झंगरेणो- झंगरेणो सी
ललांगो -लाल
भली मनखेण आदि
रजनी कुकरेती ने भी लिखा की गढ़वाली मे विशेषण की उत्तरावस्था एवम उत्तमावस्था बताने वाले शब्द प्रयोग नही किये जाते हैं
किन्तु रजनी स्पष्ट करती हैं कि गढ़वाली मे इस उद्देश्य हेतु पर-विशेषणों का उपयोग किया जटा है. जैसे
उच्चू, वैसे उच्चू , हौरू उच्चू, सबसे उच्चू, निसु, हौर निसु आदि
आगे रजनी स्पष्ट करती हैं कि विशेषणों के मध्याक्षरों पर संहिता यथा लम्म+ बु , छोट्टु , मत् + थि से गुण कि अधिकता प्रकट कि जाति है।
गध्वलि मे द्विरुक्ति जैसे –
काळु-काळु,
भूरु -भूरु एवं भूरण्या
गढ़वाली भाषा में विशेषण बनाने कि नियम
१- संज्ञा शब्दों के अंत में वल़ो, वळी, दरो , दरी , जोड़ने से विशेषण बनते हैं जैसे
भारावळी, गढवळी
जसपुर वल़ो , कुमाऊ वल़ो
हैंसदरि
पढंदरो
२- संज्ञा शब्दों के अंत में या जोड़ने से यथा
जस्पुर्या, दिपरग्या , इस्कुल्या , सरबट्या
३- संज्ञा के अंत में आन, वान या मान जोड़ने से
भग्यान,
बुद्धिमान
४- संज्ञा शब्द के अंत में री जोड़ने से , जैसे
पुजारी , फुलारी, जुवारी
५- क्रिया शब्दांत में दो या दी जोड़ने से
उठदो, बैठदो
खांदी -पींदी
अबोध बंधु ने सरलतम तरीका अपनाया वहीँ रजनी कुकरेती ने नियमों को अधिक स्पष्टता के साथ तालिका बद्ध किया है और बगैर रजनी के उद्धरणो के गढवाली व्याकरण /विशेषणों का तुलनात्मक अध्ययन पूरा नही माना जा सकता है
१- गढवाली में मूल विशेषण :
१-क खाने का सवाद – मिट्ठू, गळगल़ू , घळतण्या , सळसल़ू ,
१ख मनुष्य प्रकृति – अळगसि, फोंद्या, क्वांसी, मुन्जमुन्जू, चंट
१ग- द्रव्य विशेषताएं – चचगार, ठंडो, तातु , खिडखिडु
१घ- पेड सम्बन्धी – कुंगळी, झपनेळी
१च- मात्र – छौंदु , बिंडी, बेजां, इच्छी
सर्वनामो से विशेषण बनाने के नियम
सर्वनाम———————–
मूल सर्वनाम—————–पुल्लिं
मै/मि————————-
तख ————————–तखौ-
त्वे ————————-तेरो/ तेरु /त्यारु/त्यारो———तेरी ———————–त्यारा/
कख ————————-कखौ ————————-कखै–
जख —————————जखो ———————-जखै—–
हम ————————–हमा
कु —————————–
वु /वा ————————–वैकु
क्रिया से विशेषण बनाने के कुछ उदाहरण
क्रिया ————————–विशे
खंडऔण ———————–खंडऔण्
बौल़ेण —————————बौ
संदर्भ :
१- अबोध बंधु बहुगुणा , १९६० , गढ़वाली व्याकरण की रूप रेखा, गढ़वाल साहित्य मंडल , दिल्ली
२- बाल कृष्ण बाल , स्ट्रक्चर ऑफ़ नेपाली ग्रैमर , मदन पुरूस्कार, पुस्तकालय , नेपाल
३- डा. भवानी दत्त उप्रेती , १९७६, कुमाउंनी भाषा अध्ययन, कुमाउंनी समिति, इलाहाबाद
४- रजनी कुकरेती, २०१०, गढ़वाली भाषा का व्याकरण, विनसर पब्लिशिंग कं. देहरादून
५- कन्हयालाल डंड़रियाल , गढ़वाली शब्दकोश, २०११-२०१२ , शैलवाणी साप्ताहिक, कोटद्वार, में लम्बी लेखमाला
६- अरविन्द पुरोहित , बीना बेंजवाल , २००७, गढ़वाली -हिंदी शब्दकोश , विनसर प्रकाशन, देहरादून
७- श्री एम्’एस. मेहता (मेरा पहाड़ ) से बातचीत
८- श्रीमती हीरा देवी नयाल (पालूड़ी, बेलधार , अल्मोड़ा) , मुंबई से कुमाउंनी शब्दों के बारे में बातचीत
९- श्रीमती शकुंतला देवी , अछ्ब, पन्द्र-बीस क्षेत्र, , नेपाल, नेपाली भाषा सम्बन्धित पूछताछ
१० – भूपति ढकाल , १९८७ , नेपाली व्याकरण को संक्षिप्त दिग्दर्शन , रत्न पुस्तक , भण्डार, नेपाल
११- कृष्ण प्रसाद पराजुली , १९८४, राम्रो रचना , मीठो नेपाली, सहयोगी प्रेस, नेपाल