विवेकी व अविवेकी व्यक्तिम रोग
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चरक संहितौ सर्व प्रथम गढ़वळि अनुवाद
खंड – १ सूत्रस्थानम , 28 th अठाईसवाँ अध्याय ( विविधशित पीतीय अध्याय ) पद ३३ बिटेन ३७ तक
अनुवाद भाग – २५७
गढ़वाळिम सर्वाधिक पढ़े जण वळ एकमात्र लिख्वार-आचार्य भीष्म कुकरेती
s = आधी अ
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!!! म्यार गुरु श्री व बडाश्री स्व बलदेव प्रसाद कुकरेती तैं समर्पित !!!
संक्छेपम सुख इच्छाधारी तैं जु रोग उत्तप्न्न रोगो तैं हटाणो ब्यूंत बुले गेन , वूंको आचरण करण चयेंद। किलैकि सौब प्राणियों म सौब प्रवृति सुख प्राप्ति की इच्छा से ही जनमदी। ज्ञान (मनोविज्ञान ) अर अज्ञान (विज्ञान) क भेद से इ मनिख मार्ग या अमार्ग कु अनुसरण करदो। परीक्षक विद्वान् परीक्षा करी हितकारी वस्तुऊं सेवन करदन। रजो गुण , तमसी व मोह म फंस्या लोक , साधारण लोक प्रिय भोजन की चाह करदन। भूत , बुद्धि , स्मृति , दृढ़ता , हितकारी वस्तु सेवन , वाणी वृद्धि , शम्म व धैर्य यी सब गुण विवेकी व्यक्ति म हूंदन। किन्तु रज व मोह युक्त हूणन लौकिक , अविवेकी म यी गुण नि हूंदन। इलै यूंमा भौत सा शारीरिक व मानसिक रोग हूंदन। ३३-३७।
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*संवैधानिक चेतावनी : चरक संहिता पौढ़ी थैला छाप वैद्य नि बणिन , अधिकृत वैद्य कु परामर्श अवश्य लीण
संदर्भ: कविराज अत्रिदेवजी गुप्त , भार्गव पुस्तकालय बनारस ,पृष्ठ — ३८३
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