हितकारी अर अहितकारी भोजन
चरक संहितौ सर्व प्रथम गढ़वळि अनुवाद
खंड – १ सूत्रस्थानम , 28 th अठाईसवाँ अध्याय ( विविधशित पीतीय अध्याय ) पद १९ बिटेन २३ तक
अनुवाद भाग – २५४
गढ़वाळिम सर्वाधिक पढ़े जण वळ एकमात्र लिख्वार-आचार्य भीष्म कुकरेती
s = आधी अ
!!! म्यार गुरु श्री व बडाश्री स्व बलदेव प्रसाद कुकरेती तैं समर्पित !!!
जै समौ अपथ्य भोजनौ कारण मल कुपित ह्वेक इन्द्रियों म स्थित ह्वे जांद तबारी मल तौं इन्द्रियों तैं पीड़ित करण लग जान्दन। यु मल वायु , शिरा , कंदराओं म कुपित ह्वेक जु मनिख तै बड़ो पीड़ा दीन्द। यां से स्तम्भन /जड़ता , संकोच , संकुचन , हाथ खुट-मुख क सिकुड़ जाण , गांठ , स्फुरण , वमन , संज्ञानाश उत्तपन्न ह्वे जांद। जै समय वात आदि दोष मल क आश्रय लेकि कुपित हूंदन तब मल क मेद अर मल तै सूखै दींदन, या मल क रंग परिवर्तन कर दींदन , अर मल अवरोध या मल अतिप्रवृति कर दींदन। जु रोग इखम लिख्यां छन सि नाना प्रकार का खान पान , चाटन , विशेष आहार से उत्तपन्न हूंदन। यी रोग उत्तपन्न नि होवन यीं इच्छा से मनिख तैं सदा हितकारी भोजन लीण चयेंद जांन आहारजन्य रोग उत्तपन्न नि होवन। १९ -२३ ।
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*संवैधानिक चेतावनी : चरक संहिता पौढ़ी थैला छाप वैद्य नि बणिन , अधिकृत वैद्य कु परामर्श अवश्य लीण
संदर्भ: कविराज अत्रिदेवजी गुप्त , भार्गव पुस्तकालय बनारस ,पृष्ठ — ३८१
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