ज़िंदगी तेरा खेल
वक़्त वक़्त की बात
तब का बचपन
आज का बचपन
चलो लौट आते हैं
तब के बचपन में …….
तब का बचपन
उन्मुक्त बचपन
कितना निराला
मासूम बचपन ……
किसकी जीत हार
खेल भावना से
हर खेल को
गले लगाते …..
न तू तू न मैं मैं
अपने पराये का
भेद न कोई
निष्कपट
निश्छल
निःस्वार्थ
निष्काम
तनाव मुक्त
था वो बचपन …….
मन को जो भा जाए
उसे पाने की ज़िद करते
खेल खिलौने सब मिट्टी मस्ती
टोली में घूमते रहते बस्ती बस्ती …….
देर सायं तक घर से दूर
खेत खलिहान चौबारे में
घर का रस्ता डाँट दिखाती
खेल खेल में सीख मिली थी
बड़े बुजुर्ग क़िस्से कहानी सुनाते
और अच्छाई बुराई का पाठ पढ़ाते
इं० विष्णु दत्त बेंजवाल “अबोध “