Disaster Management in Old Times
( ब्रिटिश युग में उत्तराखंड मेडिकल टूरिज्म- )
उत्तराखंड में मेडिकल टूरिज्म विकास विपणन (पर्यटन इतिहास ) -83
लेखक : भीष्म कुकरेती (विपणन व बिक्री प्रबंधन विशेषज्ञ )
आपदाकारकों से ही उत्तराखंड का महत्व है
जी हाँ उत्तराखंड विशेषकर गंगा यमुना घाटी व मानसरोवर मार्ग का महत्व इसलिए है कि आपदा कारकों के कारण यह क्षेत्र रहस्य्मय है। आपदाकारक अवयव ही उत्तराखंड को रहस्य्मय , हृदय कंपाने वाले बनाते हैं।
पर्यटकों की आपदाएं प्राचीन काल से ही हैं
महाभारत में उल्लेख है कि जब पांडव यात्रा कर रहे थे तो भयंकर झंझावत आया था और द्रौपदी डर गयीं थी। यही डर तब से यात्रियों को उत्तराखंड खींच लाता है। महाभारत में उत्तराखंड में तूफ़ान , तूफानी हवाओं के चलने का वृत्तांत है व हिडम्बा पुत्र घटोत्कच्छ द्वारा पांडवों को कंधों पर ढोकर ले जाना बताया गया है जो उस समय का आपदा प्रबंधन का एक रूप था। घटोत्कच्छ उत्तराखंड का क्षेत्रीय मनुष्य था ारतात स्थानीय जन ही आपदा प्रबंधन के मुख्य अंग्ग होते हैं।
कालिदास आदि के साहित्य में भी उत्तराखंड में आपदाओं का विवरण है। स्थानीय सहायता का ही विवरण है। मुस्लिम शासकों द्वारा कुमाऊं में प्रवेश व आपदाओं के कारण वापस आना अपरोक्ष रूप से स्थानीय लोगों द्वारा अत्पीड़क शासकों को आपदा प्रबंधन का ज्ञान न देने का इतिहास है। भाभर में मनुष्यों का न बसना कुछ नहीं अपितु आपदा प्रबंधन में कमी दर्शाता है। ब्रिटिश काल में जब भाभर में आपदा प्रबंधन में विकास हुआ तो भाभर में बसाहत बढ़ी। सतपुली की बाढ़ पर (संबत २००८ ) लोक गीत बने हैं।
उत्तराखंड में आपदाओं के प्रकार
उत्तराखंड निवासियों हेतु दो प्रकार की आपदाएं मुख्य रही हैं
१- प्राकृतिक आपदाएं व आग
२- महामारी
प्राकृतिक आपदाएं
१-प्राकृतिक आपदाओं में अतिवृष्टि , बादल फटने से भळक -बाढ़ आना , भूस्खलन, चट्टान खिसकना , रास्तों का अवरुद्ध होना आदि
२- भूकंप से पूरा क्षेत्र ही समा जाना
३- नदी घाटियों में गर्मी की अधिकता या शीत प्रकोप
उत्तराखंड में ब्रिटिश शासन से पहले शाह या चंद व गोरखा शासकों की ओर से उत्तराखंड में कोई आपदा प्रबंध नाम की कोई विचारधारा ही नहीं थी। अत: समाज ने आपदाओं से बचने हेतु कुछ प्रबंध नियमों को कहावतों में संजो लिए थे। गाँव अधिकतर चट्टानों में ही बसते थे व ब्रिटिश काल से पहले व्यक्तिगत कोई भी घर ऐसा न होगा जो चट्टान पर न बसा होगा।
गाड गधेरों में मकान नहीं बनाये जाते थे और कहावत प्रचलित थी -गाड को वास कुल का नास। जितने भी गाँव नदी या गाड किनारे हैं वे सभी ब्रिटिश काल के हैं। 2013 की आपदा में जिस भी गाँव में भूस्खलन हुआ उन गाँवों ने पारम्परिक कहावतों (प्रबंध सूत्र ) की अवश्य ही अवहेलना की होगी। केदारनाथ भी गाड में है और वहां वास करना गढ़वाल में वसाहत प्रकृति नियम विरुद्ध ही हैं। मकानों या गाँवों के पीछे व अग्र भूभाग पर बहुत ध्यान दिया जाता था कि इन भूभाग में भूस्खलन न हो।
कई जनश्रुतियां गंगा , काली गंगा , यमुना में बाढ़ के हैं और जन धन हानि दास्ताँ बखान करते हैं। अधिकतर गंगा किनारे देव प्रयाग जैसे स्थान का चुनाव कर बसाहत होती थी जो बाढ़ आपदा प्रबंधन ही था। सतपुली में संबत 2008 की बाढ़ तो प्रसिद्ध ही है। यदि न्यार घाटी में सतपुली सैकड़ों जनो हेतु बसने लायक ही होता तो सदियों साल पहले वहां वृहद गाँव बस जाता। नयार घाटी के निम्न तल पर बसने वाले गाँवों के बारे में कहावत प्रचलित थी ” जड्डों मा ठुपर भौरिक बच्चा अर रुड्यूं म सफाचट्ट ” याने कि सर्दियों में तो अनगिनत बच्चे किन्तु गर्मियों में बच्चे मर जाते हैं। कहावतें ही आपदा न घटे के मूल प्रबंध सूत्र थे।
भूस्खलन या बाढ़ बगैर चेतावनी के नहीं आता है . वृहद भूस्खलन या चट्टान खिसकने से पहले पहले मिट्टी बहुल क्षेत्र में भूस्खलन होता है जिससे पहले लोग समझ जाते थे और अग्रिम बचाव का कार्य कर लेते थे। मेरा गाँव जसपुर (ढांगू पौड़ी ) चट्टान पर बसा है। किन्तु बहुत साल शायद 200 -300 साल पहले जसपुर में चट्टान खिसकी थी या भयंकर भूस्खलन हुआ था और हमारे मुंडीत को पश्चिम से पूर्व में विस्थापित होना पड़ा था।
मेरी दादी ने श्रुतियों के आधार पर बताया था कि पहले दूर एक दो मील दूर पश्चिम में पहले गोदेश्वर डांडा मदिर खिसका था फिर भूस्खलन खिसकते खिसकते जसपुर में भूस्खलन या शिलास्खलन हुआ। याने कि प्रकृति जन्य प्रतीकों से जनता समझ जाती थी कि आपदाओं से कैसे निपटना है। अति वृष्टि में सभी यात्राएं बंद कर दी जातीं थीं और गाड गदन के रास्ते तो यात्रा बिलकुल बंद कर दी जातीं थीं। शादी व्याह भी बरसात में नहीं होते थे।
बरफवारी भी प्राकृतिक आपदा लाती थीं। माना कि कोई बरात निकली हो और बर्फबारीया अति वृष्टि शुरू हो जाती थी तो बरात निकट के गाँवों में शरण लेती थी व गाँव वाले मिळवाक् कर भोजन आवास प्रबंध कर लेते थे।
भूकंप आपदा
भूकंप एक ऐसी बिपदा है जो बिना चेतावनी के आती है और इसके लिए कोई प्रबंध नहीं था। जो बच गए उन्हें सगा संबंधियों की शरण में जाना पड़ता था। उत्तरकाशी व अन्य भूकम्पीय क्षेत्रों में काष्ठ भवन वास्तव में भूकंप प्रबंधन का एक अंग था। ब्रिटिश काल में मिट्टी के घरों केस्थान पर मिट्टी -पत्थर के मकान अधिक भूकंप निरोधी मकान हैं।
एक बात सत्य है व सही भी है। जब भी भूस्खलन या भूकंप कारण मनुष्य मलवे के नीचे दबा हो या हों तो तुरंत मलवे के पास नहीं जाया जाता है व मलवा हटाने का कार्य नहीं किया जाता है । इसका कारण यह नहीं हैकि उत्तराखंडी क्रूर हैं अपितु कारण है कि यदि ताजा मलवा हटाया जाय तो नया मलवा गिरने का अवसर भी अधिक होता है।
कई बार न्यूज टीवी चैनल में भूस्खलन का समाचार देते वक्त बार बार सरकार या अधिकारियों को कोसते हैं कि सरकार मलवा नहीं हटा रही है किन्तु पहाड़ों में मलवा हटाना आज भी आसान नहीं है। मानसरोवर यात्रा में जिस साल प्रोतिमा वेदी का इंतकाल हुआ था उस साल कई पत्रकारों ने लिखा था कि सरकार मलवा नहीं उठा रही है। भूस्खलन या ल्वाड़ -र्याड़ -भळक (छोटे छोटे पत्थर स्खलन ) में मृतकों को मलवे नीचे दबा रहने देना वास्तव में पहाड़ों की मजबूरी है ना कि काम में गफलत।
महामारी आपदा
महामारी की अवस्था में लोग रोगियों या मृतकों को गाँवों में ही छोड़ भागकर जंगलों में चले जाते थे। यही थी महामारी आपदा प्रबंधन। ब्रिटिश काल में सफाई जागरण व टीकाओं के अन्वेषण से महामारी पर लगाम लगी।
वास्तव में आपदा प्रबंधन भी ब्रिटिश काल से ही शुरू हुआ। इस लेखक को अभी तक कोई रिकॉर्ड नहीं मिला जिसमे प्राचीन उत्तराखंड में आपदा प्रबंधन पर प्रकाश पड़ता हो। हाँ पंडितों के पास पारम्परिक वास्तु ज्ञान था जिस ज्ञान अनुसार वे मकान लगाने से पहले जजमान की सहायता करते थे – सामूहिक चिकत्सा का कोई साहित्य इस लेखक को नहीं मिला. मंत्रों में बहुत से रोगों के मंत्र हैं किन्तु वे सामूहिक चिकत्सा पर प्रकाश डालने में असक्षम है।
यात्रा मार्ग पर आपदा प्रबंधन
अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि यात्रा मार्ग पर आपदा घटित होती थी तो आस पास के गाँव ही यात्रियों की सहायता करते रहे होंगे।