ग्रामीण गढ़वाल में आधुनिक गढ़वाली नाटकों का मंचन न होना : गढ़वाली नाटक निर्माण की मुख्य समस्या
(कैच देम यंग (बचपन में आदत डालो ) सिद्धांत का पालन न होना )
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आंचलिक (गढ़वाली कुमाऊंनी ) नाटकों की चुनौतियां – 5
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भीष्म कुकरेती (भारतीय साहित्य इतिहासकार )
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ग्रामीण गढ़वाल में सदियों से लोक नाटक खेला जाता रहा है व लोक नृत्य संगीत का प्रवाह होता आया है। लोक नाटक वास्तव मंचन में व्यवसायिक जातियों (बादी , हुडक्या, औजी मंगळेर आदि ) द्वारा खेले जाते थे। ब्रिटिश काल व स्वतंत्रता काल पश्चात पारम्परिक व्यवसायिक जातियों द्वारा समाज द्वारा सम्मान न मिलने के कारण लोक नाटकों के खेल ने में हीनता आयी व अब तो बादी , हुडक्या आदि जाति ही लुप्त हो गयी हैं तो बच्चों व युवाओं को नाट्य प्रशिक्षण का सामजिक ढाँचा ही लुप्त हो गया है। चूँकि लोक नृत्य व लोक गीत के रचयिता विद्यमान हैं तो लोक नृत्य -लोक संगीत की लोक नाट्य विधा विद्यमान है व इंटरनेट माध्यम के यूट्यूब माध्यम के कारण अच्छी प्रगति पर है।
ब्रिटिश काल में शिक्षा माध्यम गढ़वाली-कुमाऊंनी को छोड़ हिंदी कर दिया गया था व न्यायालयों में अंग्रेजी व उर्दू भाषा के वर्चस्व से विद्यालयों , महाविद्यालयों व विश्व विद्यालयों में आधुनिक गढ़वाली नाट्य मंचन विचारों की हत्त्या कर दी गयी व यह वैचारिक औपनिवेशवादिक हत्त्या आज भी की जा रही है। इस वैचारिक हत्त्या के कारण अध्यापक विद्यालयों , महाविद्यालयों में या विश्व विद्यालयों में गढ़वाली नाटकों का मंचन करते ही नहीं है। जो भी गढ़वाली नाट्य मंचन किया भी जाता है तो ऐसे किया जाता है जैसे गढ़वाली भाषा को दान दिया जा रहा है या गढ़वाली भाषा पर गढ़वाली में नाट्य मंचन से गढ़वाली पर कोई अनुग्रह किया जा रहा हो. गढ़वाली को अनाथ भाषा के समान मानकर विद्यालयों /महाविद्यालयों में नाट्य मंचन किया जाता है।
राजकीय उदासीनता से विद्यालयों व महाविद्यालयों में गढ़वाली कुमाऊंनी नाट्य मंचन न होने से बच्चों व युवाओं में गढ़वाली नाट्य मंचन का प्रशिक्षण सही समय में नहीं होता व धीरे धीरे जब विद्यार्थी लायक होता है तो वे सब गढ़वाली भाषा नाटक मंचन से सर्वथा उदासीन ही हो जाते हैं।
जो भी वयस्क गढ़वाली नाट्य संसार में आये हैं वे व्यक्तिगत मनोवृति के कारण आते हैं।
ग्रामीण गढ़वाल में गढ़वाली नाटक मंचन के सामने निम्न चुनौतियाँ भी है –
विद्यालय , महाविद्यालय के अनुरूप नाटक स्क्रिप्टों की अनुपलब्धता।
समाज मध्य नाटकों की स्क्रिप्ट अनुपलब्धता
समाज में गढ़वाली नाटक मंचन का जजबा ही नहीं है।
गाँवों में कलाकार मिलने की चुनौतियाँ
प्रफेसनल निर्देशकों का अकाल व कल्पनाशक्ति वाले निर्दशकों का भी अकाल।
धन की अत्यंत हीनता – चूँकि समाज में आधुनिक नाटकों के प्रति अति उदासीनता है तो धन की हीनता अपने आप ही होगी।
विद्यालयों/ महाविद्यालयों में भी अध्यापकों का गढ़वाली नाटक के प्रतिउदासीनता।
ग्रामीण स्तर पर मेक अप , वस्त्र क्स्टयूम आदि का न होना व्यवसायिक नाटक मंचन में रोड़ा होते हैं।
तक्नोलोजी (ध्वनि , प्रकाश, स्क्रीन प्रयोग ) का प्रयोग ग्रामीण स्तर में न होने से बच्चों व युवा व्यवसायिक नाट्य मंचन नहीं सीख पाते।
ग्रामीण स्तर पर बच्चे व युवा सीख नहीं पाते कि किस तरह से नाट्य निर्माण हेतु संसाधन जुटाए जायं व टिकट बेचे जायँ .
, ग्रामीण क्षेत्र में दर्शकों की हीनता होती है।
ग्राम प्रधान व राजनैतिक शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा गढ़वाली नाटकों के प्रति खेदजनक उदासीनता देखि गयी है।
लोक नाटक व्यवसायी वर्ग में न होने से अब पद्यात्मक व गद्यात्मक लोक नाटक होते ही नहीं तो सीखने के माध्यम में सूखा ही है।
राजनैतिक दलों का गढ़वाली कुमाऊंनी भाषा के प्रति उदासीनता है व वे भी राजनैतिक नाटक (अपने दल लाभ हेतु ) हिंदी में ही करते हैं।
गढ़वाली कुमाऊंनी भाषाओँ को बचाना है तो ग्रामीण क्षेत्रों में नाटक मंचन आवश्यक हैं व अध्यापकों , ग्राम प्रधानों , राजनीतिक कार्यकर्ता , सामजिक कार्यकर्ताओं के अंदर जज्बा आना आवश्यक है। जज्बा आ गया तो शेष चुनौतियाँ गौण हो जाएँगी।
प्रवासी कुछ अंतराल के बाद धार्मिक कार्यक्रमों हेतु गाँव जाते हैं उन्हें गाँवों में छोटे बड़े गढ़वाली नाटक मंचित करना ही चाहिए।