नाम- हरीश चन्द्र बडोला (मंचीय नाम- हरीश बडोला)
माता का नाम- स्व0 कपोत्री देवी बडोला
पिता का नाम- स्व0 तोताराम बडोला
गांव-जिला- ग्राम जजेडी] पट्टी कोलागाड]पो0ओ0 कोलाखाल विकास खंड, पोखड़ा] जिला पौड़ी गढ़वाल]उत्तराखंड ।
जन्मतिथि- 1-जनवरी 1952
शिक्षा – प्रारंभिक शिक्षा पठोऽलगांव प्राइमरी स्कूल] ग्रामसभा जजेड़ी] पट्टी कोलागाड़] पौड़ी गढ़ावाल] नगरपालिका प्राइमरी स्कूल न01 कोटद्वार तथा इण्टरमीडिएट-पीआईसी कोटद्वार पौड़ी गढ़वाल तत्कालीन उत्तर प्रदेश,
स्नातक-लखनऊ विश्वविद्यालय] उ0प्र0।
व्यवसाय- उत्तर प्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग में वैयक्तिक सहायक के रुप में 44 वर्ष सेवा के बाद सेवानिवृत। वर्तमान में हिन्दी रंगमंच में सक्रिय तथा कविता लेखन।
Ø स्कूल स्तर से नाट्य मंचन में अभिरुचि। जिला एवं मंडलीय स्कूली प्रतियोतियोगिताओं में कक्षा-7 से लेकर कक्षा 12 तक प्रतिवर्ष एकांकी नाटकों में अभिनय व प्रत्येक वार प्रथम स्थान।
Ø लखनऊ-1969 में गढ़वाल सभा द्वारा आयोजित रामलीला में रामायण के विभिन्न पात्रों का अभिनय अंगद एवं रावण आदि प्रमुख थे।
Ø गढ़वाल सभा लखनऊ द्वारा आयोजित होली मिलन समारोह में सर्वप्रथम श्री ललित मोहन थपलियाल जी लिखित गढवाली नाटक खाडू लापता में दिल्ली से आये नवयुक का अभिनय।
Ø आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित उत्तरायण कार्यक्रम में 1976 से गढ़वाली कबिता एवं कहानी एवं पूर्वोत्तर के विभिन्न राज्यों पर गढ़वाऽली में वार्ताए। उत्तरायण कार्यक्रम के लखनऊ से नजीवावाद स्थानान्तरित होने तक।Ø आकाशवाणी नजीवावाद द्वारा उत्तरकाशी तथा देहरादून में आयोजित गढ़वाऽली -कुमांउनी कवि सम्मेलनों में प्रतिभाग।
Ø गुरुदेव डा0 उर्मिल कुमार थपलियाल जी से आकाशवाणी में सम्पर्क होने पर 1978 में स्व0 भवानीदत्त सती थपलियाल जी लिखित गढ़वाऽली के आदि नाटक‘प्रह्लाद] में विभिन्न अहम भूमिकाओं का निर्वहन किया। मेरे गुरु श्री शशakक बहुगुणा के अहम योदान के कारण एवं इस नाटक की विशिष्ट डिजायनिंग के कारण इसका प्रर्दशन लखनऊ के अलावा रायबरेली देहारादून] इलाहाबाद और दो बार श्रीराम सेन्टर नई दिल्ली एवं लिटिल थियेटर नई दिल्ली में कर सके।
Ø मेरे द्वारा लिखिन गढवाऽली नृत्य नाटिक “रैबाऱ” और “गंगावतरण़” का भी मंचन लखनऊ की मुनाल संस्था एव देवांचलम् रंगमंडल द्वारा किया गया। गंगावतरण नृत्य नाटिका कदाचित देहरादून से श्री कुलानन्द धनसेला की पुस्तक में भी प्रकाशित हुई है।
Ø मेरे एवं मेरे मि़त्र वरिष्ठ रंगकर्मी श्री संगम बहुगुणा द्वारा 1978 में 1978 में 1978 में 1978 में 1978 में फ्यूंली के फूल पर संग्रहीत सामग्री के आधार पर गुरुदेव डा0 उर्मिलकुमार थपलियाल जी द्वारा लिखिल गढवाऽली नाटक‘एक पीले फूल की कथा- “फ्यूंली” का भी मंचन दो बार लखनऊ में किया गया। जिसमें मुझे अहम भमिका निभाने का अवसर मिला।
Ø अपनी मात्र भाषा में मेरे द्वारा एक कविता संग्रह “पस्यो को रंग” का भी प्रकाशन हुआ है जिसके बारे में आदरणीय भीष्म जी के उदगार “बेडू डॉट काम” पर उपलब्ध है।
Ø गढवाली रंगमंच ने मुझे हिन्दी रंगमच की ओर आकृष्ट किया और 1992 से हिन्दी रंगमंच में सक्र्रिय होने पर अब तक में 105 से अधिक नटकों में अभिनय व सहनिर्देशक की भूमिका भी निर्वहन कर चुका हॅू। निवर्तमान 03फरवरी 2023 से 04 मार्च 2023 हमारी नाट्य संस्था मंचकृति समिति प्रतिदिन एक मूल हिन्दी हास्य नाटकों के 30 दिवसीय नाट्य समारोह का आयोजन भी कर रही है।
गढ़वाऽली नाटकों के मंचन की चुनौतियां
गढ़वाली भाषा के अग्रणीय अद्येता श्री भीष्म कुकरेती से अधिक गढवाली मनोविकारो को आम जन कदाचित ही समझ सके। हमने जब गढ़वाऽली नाटकों पर काम करना प्रारंभ किया तो सबसे बड़ी चुनौती अपनी भाषा को बोलने वालो की थी। इसका नतीजा यह था कि 1.45 घटे के नाटक हेतु हमें पूरे 6 माह पूर्वाभ्याय करना पड़ा। भाषा को समझने, उच्चरण को सही करने तथा गढ़वाऽली भाषा की कोमलता(टोन) को समझाना अपने आप में बहुत कठिन है। वर्तमान में तो यह कार्य बहुत असंभव सा लगता है विषेषकर शहरों में। जब बोलने और समझने वालों का अभाव होगा को गढ़वाली में नाटक अथवा कुछ और करना असंभव सा लगता है।